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षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
भावानुभूतिजनितसुखामृतरसस्वभावमलभमानास्तुच्छमपीन्द्रियसुखमभिलषन्ति छद्मस्थाः, तदासक्ताः सन्त एकेन्द्रियादिजीवानां घातं कुर्वन्ति तेनोपाजितं यत्त्रसस्थावरनामकर्म तदुदयेन जीवा भवन्ति । कथंभूता भवन्ति ? "पुढविजलतेयवाऊवणप्फदी विविहथावरेइंदी" पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः। कतिसंख्योपेता? विविधा आगमकथितस्वकीयस्वकीयान्तर्भेदैर्बहुविधाः । स्थावरनामकर्मोदयेन स्थावरा, एकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयेन स्पर्शनेन्द्रिययुक्ता एकेन्द्रियाः, न केवलमित्थंभूताः स्थावरा भवन्ति । “विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा" द्वित्रिचतुःपञ्चाक्षास्त्रसनामकर्मोदयेन त्रसजीवा भवन्ति । ते च कथंभूताः ? “संखादी" शङ्खादयः स्पर्शनरसनेन्द्रियद्वययुक्ताः शङ्खशुक्तिकृम्यादयो द्वीन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियत्रययुक्ताः कुन्थुपिपीलिकायकामत्कुणादयस्त्रीन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियचतुष्टययुक्ता दंशमशकमक्षिकाभ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियपञ्चयुक्ता मनुष्यादयः पञ्चेन्द्रिया इति । अयमत्रार्थः-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपारमार्थिकसुखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां वधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्व तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशार्थ तत्रैव परमात्मनि भावना कर्तव्येति ॥ ११ ॥
तदेव त्रसस्थावरत्वं चतुर्दशजीवसमासरूपेण व्यक्तीकरोति :
व्याख्यार्थ-अब 'होति' इत्यादि पदोंकी व्याख्या की जाती है। "होति" अतीन्द्रिय तथा मूर्ति रहित जो निजपरमात्माका स्वभाव है, उसके अनुभवसे उत्पन्न जो सुखरूपी अमृतरस उसके स्वभावको 'नहीं प्राप्त करते हुए जीव तुच्छ ( अल्प ) जो इंद्रियोंसे उत्पन्न सुख है, उसकी अभिलाषा करते हैं और अज्ञानतासे उस इन्द्रियजनित सुखमें आसक्त होकर एकेन्द्रिय आदि जीवोंका घात करते हैं, उस घातसे उपार्जन किया जो त्रस तथा स्थावर नामकर्म उसके उदयसे होते हैं। "पुढविजलतेयवाऊवणप्फदीविविहथावरेइंदो' पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तथा वनस्पति जीव, कितने-अनेक प्रकारके अर्थात् शास्त्रमें कहे हुए जो अपने-अपने भेद हैं उनसे बहुत प्रकारके, स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर, एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयसे स्पर्शन इन्द्रिय सहित एकेन्द्रिय होते हैं केवल इस प्रकारके स्थावर ही नहीं होते हैं; किन्तु “विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा" दो, तीन, चार, तथा पाँच इन्द्रियोंके धारक त्रस नामकर्मके उदयसे त्रस जोव होते हैं वे कैसे हैं कि "संखादी' शंख आदिक अर्थात् स्पर्शन और रसन इन दो इन्द्रियों सहित शंख, कृमि आदि दो इन्द्रियोंके धारक जीव हैं; स्पर्शन, रसन, तथा घ्राण (नासिका) इन तीन इन्द्रियों सहित कुथु, पिपीलिका ( कीड़ी ); यूका (जू), मत्कुण (खटमल) आदि त्रीन्द्रिय हैं। स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु (नेत्र) इन चार इन्द्रियों सहित दंश (डांस), मशक ( मच्छर ), मक्षिका (मक्खी) और भौंरा आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं; स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत (कर्ण) इन पाँच इन्द्रियों सहित मनुष्य आदि पञ्चेन्द्रिय हैं। यहाँपर तात्पर्य यह है कि निर्मल ज्ञान तथा दर्शन स्वभावका धारक जो निज परमात्मस्वरूप उसकी भावनासे उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है, उसको नहीं प्राप्त होते हुए जीव इन्द्रियोंके सुखमें आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवोंका वध करते हैं, उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं इसलिये त्रस और स्थावरोंमें जो उत्पत्ति होती है उसके नाशके लिये उसे उसी पूर्वोक्त प्रकारसे परमात्मामें भावना करनी चाहिये ॥ ११ ।।
अब उसी त्रस तथा स्थावरपनेको चतुर्दश जीवसमासों द्वारा व्यक्त ( प्रकट ) करते हैं;
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