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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रह भरतपुत्रा जातास्ते च केनचिदपि सह न वदन्ति । ततो भरतेन समवसरणे भगवान् पृष्टो, भगवता च प्राक्तनं वृत्तान्तं कथितम् । तच्छ्रुत्वा ते तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गताः । आचाराराधनाटिप्पणे कथितमास्ते । इति संसारानुप्रेक्षा गता ॥३॥ अथैकत्वानुप्रेक्षा कथ्यते। तद्यथा-निश्चयरत्नत्रयैकलक्षणकत्वभावनापरिणतस्यास्य जीवस्य निश्चयनयेन सहजानन्दसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतं केवलज्ञानमेवैकं सहजं शरीरम् । शरीरं कोऽर्थः स्वरूपं न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम् । तथैवातरौद्रदुानविलक्षणपरमसामायिकलक्षणैकत्वभावनापरिणतं निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारि न च पुत्रकलत्रादिः । तेनैव प्रकारेण परमोपेक्षासंयमलक्षणैकत्वभावनासहितः स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थः न च सुवर्णाद्यर्थः । तथैव निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणानाकुलत्वस्वभावात्मसुखमेवैकं सुखं न चाकुलत्वोत्पादकेन्द्रियसुखमिति । कस्मादिदं देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादिकं जीवस्य निश्चयेन निराकृतमिति चेत्, यतो मरणकाले जीव एक एव गत्यन्तरं गच्छति न च देहादीनि । तथैव रोगव्याप्तिकाले विषयकषायादिदुर्ध्यानरहितःः स्वशुद्धात्मकैकसहायो भवति । तदपि कथमिति चेत् ? यदि चरमदेहो भवति तहि केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपं मोक्षं नयति, अचरमदेहस्य तु संसारस्थिति स्तोकां कृत्वा देवेन्द्राद्यभ्युदयसुखं दत्वा च पश्चात् पारम्पर्येण मोक्षं भगवान्से पूछा, तो भगवान्ने पुराना सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर, उन सब वर्द्धनकुमारादि पुत्रोंने तप ग्रहण किया और बहुत ही अल्प कालमें मोक्ष चले गये" | यह कथा आचाराराधनाकी टिप्पणीमें कही हुई है । इस प्रकार संसार अनुप्रेक्षाका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥३।। अब एकत्व अनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं। वह इस प्रकार है-निश्चय रत्नत्रयरूप एक लक्षणका धारक जो एकत्व है उसकी भावनामें परिणत इस जीवके निश्चयनयसे सहज आनन्द, सुख आदि अनन्त गुणोंका आधाररूप जो केवल ज्ञान है वह एक ही सहज (स्वभाव से उत्पन्न) शरीर है । यहाँ 'शरीर' इस शब्दका अर्थ स्वरूप समझना, न कि सात धातुओंसे निर्मित औदारिक शरीर । इसी प्रकार आर्त और रौद्र इन दोनों ध्यानोंसे विलक्षण (उलटी) जो परमसामायिकरूप एकत्व भावना है उसमें परिणत जो एक अपना आत्मतत्त्व है वही सदा अविनाशी और परम हितक करनेवाला है; और पुत्र, मित्र, कलत्र आदि हितके कर्ता नहीं। पूर्वोक्त रीतिसे ही परम उपेक्षा संयमरूप जो एकत्व भावना है, उससे सहित जो निज शुद्धात्म पदार्थ है, वह एक ही अविनाशी तथा हितकारी परम अर्थ (धन ) है; और सुवर्ण आदिरूप अर्थ ( धन ) परम अर्थ नहीं है । एवमेव निर्विकल्प ध्यानसे उत्पन्न तथा निर्विकार परम आनन्दमय लक्षण और आकुलतारहित स्वभावका धारक ऐसा आत्मसुख ही एक सुख है; और आकुलताको उत्पन्न करनेवाला इन्द्रियजन्य जो सुख है सो सुख नहीं। ये पूर्वोक्त जो जीवके शरीर, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ, और इन्द्रियसुख आदि हैं इनका निश्चयनयसे खंडन क्यों किया है, ऐसी शंका करो तो समाधान यह है कि जब मरणका समय आता है तब यह जीव एक (अकेला) ही दूसरी गतिमें गमन करता है और देह आदि इस जीवके साथ नहीं जाते, किन्तु यहाँके यहाँ ही रह जाते हैं। और जब यह जीव रोगोंसे व्याप्त होता है तब विषय तथा कषाय आदिरूप जो खोटे ध्यान हैं उनसे रहित एक निजशुद्ध आत्मा ही इसका सहायक होता है । और वह सहायक भी कैसा होता है ? इसका उत्तर यह है कि यदि उस जीवका अंतिम शरीर हो तब तो केवलज्ञान आदिकी प्रकटतारूप जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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