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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार प्रापयतीत्यर्थः । तथा चोक्तं- “सग्गं तवेण सव्वो, वि पावए किंतु झाणजोयेण। जो पावइ सो पावइ, परं भवे सासयं सोक्खं । १।" एवमेकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मकत्वभावना कतंव्या । इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता ॥४॥ तथान्यत्वानुप्रेक्षां कथयति । तथा हि-पूर्वोक्तानि यानि देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि तथैव हेयभूतानि च, तानि सर्वाणि टोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन नित्यात्सर्वप्रकारोपादेयभूतान्निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारस्वभावान्निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि । तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति । अयमत्र भाव एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण । इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्य तदेव । इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥५॥ अतः परमशुचित्वानुप्रेक्षा कथ्यते। तद्यथा-सर्वाशुचिशुक्रशोणितकारणोत्पन्नत्वात्तथैव "वसासृरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः" इत्युक्ताशुचिसप्तधातुमयत्वेन तथा नासिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः । न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। शुचि सुगन्धमाल्यवस्त्रामोक्ष है उसमें ले जाता है और यदि अंतिम शरीर न हो तो वह शुभ ध्यानरूप शुद्ध आत्मा उस जीवकी जो संसारको स्थिति है उसको अल्प करके और देव, इन्द्र आदि पर्यायसंबंधी सुखोंको देकर, फिर परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति करता है। यह भावार्थ है। सो ही कहा भी है-'तपके करनेसे स्वर्ग सब कोई पाते हैं, परन्तु शुभ ध्यानके योगसे जो कोई स्वर्ग पाता है वह अग्रिम भवमें शाश्वत सुख अर्थात् मोक्षको पाता है ॥ १॥" ऐसे एकत्व भावनाके फलको जानकर, सदा निजशुद्ध आत्माके एकत्वरूप भावना ही करनी चाहिये । इस प्रकार एकत्व नामक चतुर्थ अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ४॥ अब पंचम अन्यत्व अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं। सो इस प्रकार है--पूर्व एकत्वभावनामें कहे हुए जो देह, बंधुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रियसुख आदि हैं वे सब कर्मों के आधीन हैं इसी कारण विनाशस्वभावके धारक हैं तथा हेय ( त्याज्य ) स्वरूप भी हैं। इस कारण टोत्कीर्ण एवं ज्ञायक रूप एक स्वभावसे नित्य, सब प्रकारोंसे उपादेयभूत और विकाररहित परमचैतन्य चित्-चमत्कारस्वभावका धारक जो निज परमात्मपदार्थ है, उससे वे सब निश्चयनयकी अपेक्षासे भिन्न हैं। और आत्मा भी उनसे भिन्न है। भावार्थ यहाँ पर यह है कि-एकत्व अनुप्रेक्षामें तो 'मैं एक हूँ' इत्यादि प्रकारसे विधिरूप व्याख्यान है और इस अन्यत्व अनुप्रेक्षामें 'देह आदिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेधरूपसे वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओंमें विधि तथा निषेधरूप ही विशेष ( भेद ) है और तात्पर्य तो दोनोंका एक ही है। ऐसे अन्यत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ।। ५॥ ___ अब आगे अशुचित्व अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-सबसे अपवित्र ऐसे शुक्र (पिताका वीर्य ) और शोणित ( माताका रुधिर ) रूप कारणसे उत्पन्न होनेके कारण तथा "वसा, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि (हाड़), मज्जा, और शुक्र ये धातु हैं," इस प्रकार पूर्वोक्त अपवित्र जो सप्त धातु हैं इन रूप होनेसे तथा नाक आदि नौ छिद्रोंद्वारा स्वरूपसे भी अशुचि होनेसे और इसी भाँतिसे मूत्र, पुरीष (विष्ठा) आदि अशुचि मलोंकी उत्पत्तिका स्थान होनेसे यह देह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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