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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ८७ दोनामशुचित्वोत्पादकत्वाच्चाशुचिः । इदानी शुचित्वं कथ्यते-सहजशुद्धकेवलज्ञानादिगुणानामाधारभूतत्वात्स्वयं निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः । “जीवो बम्हा जीवह्मि चेव चरिया विज्ज जो जदिणो। तं जाण ब्रह्मचेरं विमक्कपरदेहभत्तोए।१" इति गाथाकथितनिर्मलब्रह्मचर्य तत्रैव निजपरमात्मनि स्थितानामेव लभ्यते। तथैव "ब्रह्मचारी सदा शुचिः” इति वचनातथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं न च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। तथैव च"जन्मना जायते शूद्रः क्रियया द्विज उच्यते। श्रुतेन श्रोत्रियो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः।१।" इति वचनात्त एव निश्चयशुद्धाः ब्राह्मणाः । तथा चोक्तं नारायणेन युधिष्ठिरं प्रति विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम् । “आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।।" इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता ॥६॥ अत ऊर्ध्वमानवानुप्रेक्षा कथ्यते । समुद्रे सच्छिद्रपोतवदयं जीव इन्द्रियाद्यास्रवैः संसारसागरे पततीति वात्तिकम् । अतीन्द्रियस्वशुद्धात्मसंवित्तिविलक्षणानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि भण्यन्ते । परमोपशममूर्तिपरमात्मस्वभावस्य क्षोभोत्पादकाः क्रोधमानमायालोभकषाया अभिअशुचि है। और केवल अशुचि कारणसे उत्पन्न होनेके कारण ही यह अशुचि नहीं है; किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदिका जनक होनेसे भी अशुचि है। और पवित्र जो सुगन्ध, माला, वस्त्र आदि हैं उनमें भी यह शरीर अपने संसर्गसे अपवित्रता उत्पन्न करता है, इस कारण भी अशुचि है। अब पवित्रताका कथन करते हैं-सहज शुद्ध ऐसे जो केवल ज्ञान आदि गुण हैं उनका आधारभूत होनेसे और निश्चयसे अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा ही शुचि है । "जीव ब्रह्म है, जीवहीमें जो मुनिकी चर्या (प्रवृत्ति) होवे उसको, छोड़ी है परदेहकी सेवा जिसने ऐसा ब्रह्मचर्य जानो ।१।" इस गाथामें कहा हुआ जो निर्मल ब्रह्मचर्य है, सो उस परमात्मामें स्थित हुए जीवोंके ही मिलता है। और इसी प्रकार "ब्रह्मचारी सदा पवित्र है" इस वचनसे उन पूर्वोक्त प्रकारके ब्रह्मचारियोंके ही पवित्रता है। और जो काम तथा क्रोध आदिमें तत्पर जीव हैं उनके जलस्नान आदि शौचोंके करनेपर भी पवित्रत्व नहीं है। क्योंकि, इसी प्रकार "जन्मसे शूद्र होता है, क्रियासे द्विज कहलाता है, श्रुत (शास्त्र) से श्रोत्रिय जानना चाहिये और ब्रह्मचर्यसे ब्राह्मण जानना चाहिये ।१।" ऐसा वचन है। इसलिये पूर्वोक्त परमात्मामें तत्पर जो हैं, वे ही निश्चयनयसे शुद्ध ब्राह्मण हैं। और नारायणने युधिष्ठिरको कहा है कि शुद्ध जो आत्मारूप नदी है उसमें स्नानका करना ही परम पवित्रताका कारण है, किन्तु लौकिक जो गंगा आदि तीर्थों में स्नानका करना आदि है सो शुचित्वका कारण नहीं। इस विषयमें जो श्लोक है उसका अर्थ यह है- 'संयमरूपी जलसे पूर्ण, सत्यको धारण करनेवाली शीलरूप तट और दयामय तरङ्गोंकी धारक ऐसी जो आत्मारूप नदी है उसमें हे पाण्डुपुत्र (युधिष्ठिर) ! स्नान कर; क्योंकि, अन्तरात्मा जलसे शुद्ध नहीं होता । १।" इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त हुआ।।६।। ___ अब इसके अनन्तर सप्तम आस्रवानुप्रेक्षाको कहते हैं । "जैसे छिद्रसहित नौका ( नाव ) समुद्र में डूबती है, ऐसे ही इन्द्रिय आदि छिद्रों द्वारा यह जीव संसाररूप समुद्र में गिरता है" यह वात्तिक है। इन्द्रियोंके अगोचर जो निजशुद्ध आत्माका ज्ञान है उससे विलक्षण स्पर्शन, रसन ( जिह्वा, ) नासिका, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ कहलाती हैं। परम उपशम स्वरूपका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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