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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[द्वितीय अधिकार
धीयन्ते । रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपायाः शुद्धात्मानुभूते: प्रतिकूलानि हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहप्रवृत्तिरूपाणि पञ्चाव्रतानि । निष्क्रियनिर्विकारात्मतत्त्वाद्विपरीता मनोवचनकायव्यापाररूपाः परमागमोक्ताः सम्यक्त्वक्रिया मिथ्यात्वक्रियेत्यादिपञ्चविंशतिक्रियाः उच्यन्ते । इन्द्रियकषायावतक्रियारू पासवाणां स्वरूपमेतद्विज्ञेयम् यथा समुद्रेऽनेकरत्नभाण्डपूर्णस्य सच्छिद्रपोतस्य जलप्रवेशे पातो भवति न च वेलापत्तनं प्राप्नोति । तथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणामूल्यरत्नभाण्डपूर्णजीवपोतस्य पूर्वोक्तास्रवद्वारैः कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति न च केवलज्ञानाव्याबाधसुखाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति । एवमात्र वगतदोषानुचिन्तनमानवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति ॥७॥
___ अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते—यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति; तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इन्द्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति । एवं संवरगतगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या ॥ ८॥
अथ निर्जरानुप्रेक्षा प्रतिपादयति । यथा कोऽप्यजीर्णदोषेण मलसञ्चये जाते सत्याहारं त्यक्त्वा किमपि हरीतक्यादिकं मलपाचकमग्निदीपकं चौषधं गृह्णाति । तेन च मलपाकेन धारक जो परमात्माका स्वभाव है उसके क्षोभको उत्पन्न करनेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय कहे जाते हैं। राग आदि विकल्पोंसे रहित जो शुद्ध आत्माका अनुभव है उससे प्रतिकूल ऐसे हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचोंमें प्रवृत्तिरूप पाँच अव्रत हैं । क्रियारहित और निर्विकार ऐसा जो आत्मतत्त्व है उससे विपरीत मन, वचन तथा कायके व्यापाररूप एवं शास्त्रमें कही हुई सम्यक् क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया इत्यादि पच्चीस क्रिया कही जाती हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त इन्द्रिय, कषाय, अव्रत तथा क्रियारूप आस्रवोंका स्वरूप जानना चाहिये। जैसे समुद्र में अनेक रत्नोंके भांडोंसे भरे हए छिद्रसहित पोत ( जहाज ) का जलके प्रवेश होनेपर पतन होता है और वह पोत समुद्रके किनारे जो पत्तन ( नगर ) है उसको नहीं प्राप्त होता है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप जो अमूल्य रत्नोंके भांडे हैं उनसे पूर्ण इस जीव नामा पोतमें पूर्वोक्त इन्द्रिय आदि आस्रवोंद्वारा जब कर्मरूपी जलका प्रवेश हो जाता है तब संसाररूपी समुद्र में ही पतन होता है। और केवलज्ञान अव्याबाध सुख आदि अनन्त गुणमय रत्नोंसे पूर्ण जो मुक्तिस्वरूप वेलापत्तन ( संसार समुद्र के किनारेका शहर ) हैं, उसको यह जीव नहीं प्राप्त होता है। इत्यादि प्रकारसे आस्रव में प्राप्त दोषोंका जो विचार करना है, वह आस्रवानुप्रेक्षा जाननी चाहिये ।। ७ ।।
अब संवर अनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं। जैसे वही समुद्रका पोत अपने छिद्रोंके बन्द हो जानेसे जलके प्रवेशका अभाव होनेपर निर्विघ्नतापूर्वक वेलापत्तनको प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार जीवरूपी पोत अपने शुद्ध आत्माके ज्ञानके बलसे इन्द्रिय आदि आस्रवरूप छिद्रोंके मुंद जानेसे कर्मरूप जलके प्रवेशका अभाव होनेपर निर्विघ्न केवलज्ञान आदि अनन्त गुण रत्नोंसे पूर्ण जो मुक्तिरूप वेलापत्तन है, उसको प्राप्त होता है। ऐसे संवरमें विद्यमान जो गुण हैं उनके चिंतनस्वरूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिये ॥ ८ ॥
___ अब निर्जरानुप्रक्षाका प्रतिपादन करते हैं जैसे किसी मनुष्यके अजीर्ण दोषसे मलका संचय ( पेट में मलका जमाव ) हो जावे तो वह मनुष्य आहारको छोड़ करके, मलको पचानेवाले
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