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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः मलानां पातने गलने निर्जरणे सति सुखी भवति । तथायं भव्यजीवोऽप्यजीर्णजनकाहारस्थानीयमिथ्यात्व रागाद्यज्ञानभावेन कर्ममलसञ्चये सति मिथ्यात्वरागादिकं त्यक्त्वा परमौषधस्थानीयं जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमभावनाप्रतिपादकं कर्ममलपाचकं शुद्धध्यानाग्निदीपकं च जिनवचनौषधं सेवते । तेन च कर्ममलानां गलने निर्जरणे सति सुखी भवति । किञ्च यथा कोsपि धीमानजीर्णकाले यदुःखं जातं तदजीर्णे गतेऽपि न विस्मरति ततश्चाजीर्णजनकाहारं परिहरति तेन च सर्वदैव सुखीभवति । तथा विवेकिजनोऽपि "आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति" इति वचनाद्दुःखोत्पत्तिकाले ये धर्मपरिणामा जायन्ते तान् दुःखे गतेऽपि न विस्मरति । ततश्च निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैवर्तत इति । संवेगवैराग्यलक्षणं कथ्यते - " धम्मे य धम्मफलह्मि दंसणे य हरिसो य हुंति संवेगो । संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । १।" इति निर्जरानुप्रेक्षा गता ॥९॥ ८९ अथ लोकानुप्रेक्षां प्रतिपादयति । तद्यथा - अनन्तानन्ताकाशबहुमध्यप्रदेशे घनोदधिधनवाततनुवाताभिधानवायुत्रयवेष्टितानादिनिधनाकृत्रिमनिश्चला संख्यात प्रदेशो लोकोऽस्ति । तस्याकारः कथ्यते - अधोमुखार्द्धमुरजस्योपरि पूर्णे मुरजे स्थापिते यादृशाकारो भवति तादृशाकारः परं किन्तु मुरजो वृत्तो लोकस्तु चतुष्कोण इति विशेषः । अथवा प्रसारितपादस्य कटितटन्यस्तहस्तस्य तथा अग्निको तीव्र करनेवाले किसी हरड़े आदि औषधको ग्रहण करता है । और जब उस औषधसे मल पक जाते हैं, गल जाते हैं अथवा निर्जर जाते हैं तब वह मनुष्य सुखी होता है । उसी प्रकार यह भव्यजीव भी अजीर्णको उत्पन्न करनेवाले आहारके स्थानभूत ( एवज ) जो मिथ्यात्व, राग तथा अज्ञान आदि भाव हैं उनसे कर्मरूपी मलका संचय होनेपर मिथ्यात्व, राग आदिको छोड़कर, परम औषधके स्थानभूत जीवन-मरणमें, लाभ-अलाभ में और सुख-दुःख आदिमें समान भावनाको उत्पन्न करनेवाला, कर्ममलको पकानेवाला तथा शुद्ध ध्यानरूप अग्निको दीप्त करनेवाला जो जिनवचनरूप औषध है उसका सेवन करता है । और उससे जब कर्मरूपी मलोंका गलन तथा निर्जरण हो जाता है तब वह सुखी होता है । और भी विशेष है कि जैसे कोई बुद्धिमान् अजीर्णके समय में जो दुःख हुआ उसको अजोर्णके नाश हो जानेपर भी नहीं भूलता है और उसके स्मरणपूर्वक अजीर्णको उत्पन्न करनेवाले आहारको छोड़ देता है और इस कारण सदा ही सुखी होता है; वैसे ही विवेकी ( ज्ञानी ) मनुष्य भी "दुःखी मनुष्य धर्म में तत्पर होते हैं" इस वाक्यानुसार दुःखके उत्पन्न होने के समय जो धर्मरूप परिणाम होते हैं उनको दुःख नष्ट हो जानेपर भी नहीं भूलता है । और इसके पश्चात् निज परम आत्माके अनुभव के बलसे निर्जराके निमित्त जो देखे, सुने तथा अनुभव में किये हुए भोगवांछादिरूप विभाव परिणाम हैं उनके परित्याग ( त्याग ) रूप संवेग तथा वैराग्यरूप परिणामों के साथ रहता है | संवेग और वैराग्यका लक्षण कहते हैं- "धर्ममें, धर्मके फलमें और दर्शन में जो हर्ष होता है सो तो संवेग है; और संसार, देह तथा भोगों में विरक्त भावरूप वैराग्य है । १ ।" ऐसे निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ९ ॥ अब लोकानुप्रेक्षाका निरूपण करते हैं । वह इस प्रकार है-अनंतानन्त जो आकाश है उसके बहुत ही मध्य प्रदेशमें घनोदधि, घनवान और तनुवात नामक तीन पवनोंसे वेष्टित ( बेढा हुआ ), आदि और अन्तरहित, अकृत्रिम, निश्चल और असंख्यात प्रदेशका धारक लोक है । उसके आकारका कथन करते हैं- नीचे मुख किये हुए आधे सृदंगके ऊपर पूरा मृदंग रखने पर ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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