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परिशिष्ट २
सादाऽऽउणामगोदाणं पुण्ण तिथयरादी
शातावेदनीय, शुभ आयुष्य, शुभ नाम और शुभ गोत्र तथा तीर्थंकरादि पुण्य-प्रकृतियाँ हैं; शेष पाप-प्रकृतियाँ हैं - ऐसा आगममें कहा है ।
पयडीओ सुहा हवे । अण्णं पावं तु आगमे ॥ १९ ॥
णास णरपज्जाओ उप्पज्जह देवपज्जओ
तत्थ ।
जीवो स एव सव्वस्स भंगुप्पाया धुवा एवं ॥ २० ॥
मनुष्यपर्यायका नाश होता है, देवपर्याय उत्पन्न होता है और जीव वहीका वही रहता है; इस प्रकार सर्वद्रव्यों का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य होता है ।
उप्पादपद्धंसा वस्त्थूणं होंति पज्जय-गाएण (णयेण) । Goafer णिच्चा बोधव्वा सव्वजिणवत्ता ॥ २१ ॥
वस्तु उत्पाद और व्यय पर्यायनयसे होता है, द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है ऐसा जानो; श्री सर्वज्ञजिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है ।
एवं अहिगयसुत्तो सट्ठाणजुदो मणो णिरंभिता ।
छंडउ रायं रोसं जइ इच्छइ कम्मणो णास (णासं ) ।। २२ ॥
यदि कर्मोंका नाश करना चाहते हो तो तदनुसार सूत्रके ज्ञाता होकर, स्वयं में स्थित रह कर और मनको रोककर राग और द्वेषको छोड़ो ।
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विसएषु पवट्टतं चित्तं धारेतु अप्पणो झायइ अप्पाणेणं जो सो पावेइ खलु
जो आत्मा विषयों में प्रवर्तमान मनको रोककर अपने आत्माका आत्मासे ध्यान करता है वह अवश्य सुखको प्राप्त होता है ।
अप्पा |
सेयं ॥ २३ ॥
सम्मं जीवादीया णच्चा सम्मं सुकित्तिदा जहि ।
मोहगयकेसरीणं णमो णमो ठाण साहूणं ॥ २४ ॥
जीवादको सम्यक्प्रकारसे जानकर जिन्होंने उस जीवादिका यथार्थ वर्णन किया है, जो मोहरूपी हाथी के लिए केसरी सिंहके समान हैं उन साधुओंको हमारा नमस्कार हो ! नमस्कार हो !!
सोमच्छलेण रइया पत्त्थ - लक्खणकराउ गाहाओ । भवारणिमित्तं गणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥ २५ ॥
श्री सोमश्रेष्ठी निमित्त, भव्य जीवोंके उपकारार्थ श्री नेमिचन्द्र आचार्यदेवने पदार्थोंका लक्षण बतानेवाली ये गाथाएँ रची हैं ।
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