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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः पर्यायोत्पादव्ययीव्यैः सह मुक्तात्मनः सत्तारूपेण निश्चयेनाभेदो दर्शितस्तथा यथासंभवं संसारिजीवेषु पुद्गलधर्माधर्माकाशकालेषु च द्रष्टव्यः । कालद्रव्यं विहाय कायत्वं चेति सूत्रार्थः ।। २४ ।। अथ यत्वव्याख्याने पूर्वं यत्प्रदेशास्तित्वं सूचितं तस्य विशेषव्याख्यानं करोतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु कस्य द्रव्यस्य कियन्तः प्रदेशा भवन्तीति प्रतिपादयति; - होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अनंत आयासे । मुत्ते तिहि पसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ।। २५ ।। भवन्ति असंख्याः जीवे धर्माधर्मयो: अनन्ताः आकाशे । मूर्त्ते त्रिविधाः प्रदेशाः कालस्य एकः न तेन सः कायः ।। २५ ।। ५५ व्याख्या- - "होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे" भवन्ति लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशाः प्रदीपवदुपसंहार विस्तारयुक्तेऽप्येकजीवे, नित्यं स्वभावविस्तीर्णयोर्धर्माधर्मयोरपि । "अनंत आयासे" अनन्तप्रदेशा आकाशे भवन्ति । "मुत्ते तिविह पदेसा" मूर्त्ते पुद्गलद्रव्ये संख्याता संख्यातानन्ताणूनां पिण्डा: स्कन्धास्त एव त्रिविधाः प्रदेशा भण्यन्ते न च क्षेत्रप्रदेशाः । कस्मात् ? पुद्गलस्यानन्तप्रदेशक्षेत्रेऽवस्थानाभावादिति । " कालस्सेगो" कालाणुद्रव्यस्यैक एव प्रदेशः । " ण तेण सो काओ” तेन कारणेन स कायो न भवति । कायस्यैकप्रदेशत्वविषये युक्ति प्रदर्शयति । तद्यथा - किञ्चिदूनचरमशरीरप्रमाणस्य सिद्धत्व पर्यायस्योपादानकारणभूतं शुद्धात्मद्रव्यं तत्पर्यायप्रमाणमेव । यथा पर्यायोंसे तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षणसे सहित रहनेवाले मुक्त आत्माके निश्चय नयसे सत्तारूपसे अभेद दर्शाया गया है, ऐसे ही संसारी जीवों में तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में भी यथासंभव परस्पर अभेद देख लेना चाहिये । और कालद्रव्यको छोड़कर अन्य सब द्रव्योंके कायत्व रूपसे भी अभेद है । इस प्रकार सूत्रका अर्थ है ||२४|| अब कायत्वके व्याख्यानमें जो पहले प्रदेशों का अस्तित्व सूचन किया है उसका विशेष व्याख्यान करते हैं यह तो अग्रिम गाथाकी एक भूमिका है, और किस द्रव्यके कितने प्रदेश हैं यह दूसरी भूमिका प्रतिपादन करती है; - गाथाभावार्थ - जीव, धर्मं तथा अधर्म द्रव्यमें असंख्यात प्रदेश हैं और आकाशमें अनन्त हैं। मूर्त (पुद्गल ) में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश हैं और कालके एक ही प्रदेश है इसलिये काल काय नहीं है ||२५|| व्याख्यार्थ - " होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे" प्रदीपके समान संकोच तथा विस्तारसे युक्त एक जीव में भी और सदा स्वभावसे विस्तारको प्राप्त हुए धर्म तथा अधर्म इन दोनों द्रव्यों में भी लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात प्रदेश होते हैं । "अनंत आयासे" आकाशमें अनन्त प्रदेश होते हैं । "मुत्ते तिविह पदेसा" मूर्त्त अर्थात् पुद्गल द्रव्यमें जो संख्यात असंख्यात तथा अनन्त परमाणुओंके पिण्ड अर्थात् स्कन्ध हैं वे ही तीन प्रकारके प्रदेश कहे जाते हैं, न कि क्षेत्ररूप प्रदेश तीन प्रकारके हैं। क्योंकि, पुद्गल के अनन्त प्रदेशक्षेत्र में स्थितिका अभाव है । "कालस्सेगो" कालद्रव्यका एक ही प्रदेश है । "ण तेण सो काओ" इसी हेतुसे अर्थात् एक प्रदेशी होने से वह कालद्रव्य काय नहीं है । अब कालके एकप्रदेशी होने में युक्ति कहते हैं । जैसे –अन्तिम शरीरसे किंचित् न्यून प्रमाणके धारक सिद्धत्व पर्यायका उपादानकारणभूत जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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