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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[प्रथम अधिकार
वा मनुष्यदेवादिपर्यायोपादानकारणभूतं संसारिजीवद्रव्यं तत्पर्यायप्रमाणमेव, तथा कालद्रव्यमपि समयरूपस्य कालपर्यायस्य विभागेनोपादानकारणभूतमविभाग्येक प्रदेश एव भवति । अथवा मन्दगत्या गच्छतः पुद्गलपरमाणोरेकाकाशप्रदेशपर्यन्तमेव कालद्रव्यं गतेः सहकारिकारणं भवति ततो ज्ञायते तदप्येकप्रदेशमेव। कश्चिदाह-पुद्गलपरमाणोर्गतिसहकारिकारणं धर्मद्रव्यं तिष्ठति, कालस्य किमायातम् । नैव वक्तव्यं धर्मद्रव्ये गतिसहकारिकारणे विद्यमानेऽपि मत्स्यानां जलवन्मनुष्याणां शकटारोहणादिवत्सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्तीति । अथ मतं कालद्रव्यं पुद्गलानां गतिसहकारिकारणं कुत्र भणितमास्ते। तदुच्यते ।।"पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणादु" इत्युक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पञ्चास्तिकायप्राभूते। अस्यार्थः कथ्यते। धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जीवानां कर्मनोकर्मपुद्गला गतेः सहकारिकारणं भवन्ति, अणुस्कन्धभेदभिन्नपुद्गलानां तु कालद्रव्यमित्यर्थः ॥ २५ ।। अथैकप्रदेशस्यापि पुद्गलपरमाणोरुपचारेण कायत्वमुपदिशति;
एयपदेसो वि अणू णाणाखंघप्पदेसदो होदि । बहुदेसो उवयारा तेण य काओ भणंति सव्वण्हु ।। २६ ।।
शुद्ध आत्मद्रव्य है वह सिद्धत्वपर्यायके प्रमाण ही है। अथवा जैसे मनुष्य, देव आदि पर्यायोंका उपादानकारणभूत जो संसारी जीवद्रव्य है वह उस मनुष्य, देव आदि पर्यायके प्रमाण ही है, उसी प्रकार कालद्रव्य भी समयरूप जो कालका पर्याय है उसका विभागसे उपादानकारण है तथा अविभागसे एक प्रदेश ही होता है । अथवा मन्द गतिसे गमन करते हुए पुद्गलपरमाणुके एक आकाशके प्रदेशपर्यन्त ही कालद्रव्य गतिका सहकारी कारण होता है, इस कारण जाना जाता है कि वह कालद्रव्य भी एक ही प्रदेशका धारक है। अब यहाँ कोई कहता है कि पुद्गलपरमाणुकी गतिमें सहकारी कारण तो धर्मद्रव्य विद्यमान है ही, इसमें कालद्रव्यका क्या प्रयोजन है ? सो ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि, धर्मद्रव्यके विद्यमान रहते भी मत्स्योंकी गतिमें जलके समान तथा मनुष्योंकी गतिमें गाड़ीपर बैठना आदिके समान पुद्गलकी गतिमें बहुतसे भी सहकारी कारण होते हैं। अब कदाचित् कहो कि “कालद्रव्य पुद्गलोंकी गतिमें सहकारी कारण है" यह कहां कहा हुआ है ? सो कहते हैं। श्रीकुन्दकुन्द आचार्य देवने पंचास्तिकाय नामक प्राभूतमें "पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु" ऐसा कहा है। इसका अर्थ कहते हैं कि धर्मद्रव्यके विद्यमान होते भी जीवोंकी गतिमें कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन भेदोंसे भेदको प्राप्त हुए पुद्गलोंके गमनमें कालद्रव्य सहकारी कारण होता है। यह गाथाका अर्थ है ॥ २५ ॥
अब पुद्गलपरमाणु यद्यपि एकप्रदेशी है तथापि उपचारसे उसको काय कहते हैं ऐसा उपदेश करते हैं;
गाथाभावार्थ-एक प्रदेशका धारक भी परमाणु अनेक स्कन्धरूप बहुत प्रदेशोंसे बहुप्रदेशी होता है इस कारण सर्वज्ञदेव उपचारसे पुद्गलपरमाणुको 'काय' कहते हैं ॥ २६॥
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