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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ५७ एकप्रदेशः अपि अणुः नानास्कन्धप्रदेशतः भवति । बहुदेशः उपचारात् तेन च कायः भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ २६ ॥ व्याख्या-“एयपदेशो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो" एकप्रदेशोऽपि पुद्गलपरमाणु नास्कन्धरूपबहुप्रदेशतः सकाशाद्बहुप्रदेशो भवति । "उवयारा" उपचाराद् व्यवहारनयात् "तेण य काओ भणंति सन्वण्हु" तेन कारणेन कायमिति सर्वज्ञा भणन्तीति । तथाहि-यथायं परमात्मा शुद्धनिश्चयनयेन द्रव्यरूपेण शुद्धस्तथैकोऽप्यनादिकर्मबन्धवशास्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषाभ्यां परिणम्य नरनारकादिविभावपर्यायरूपेण व्यवहारेण बहुविधो भवति । तथा पुद्गलपरमाणुरपि स्वभावेनैकोऽपि शुद्धोऽपि रागद्वेषस्थानीयबन्धयोग्यस्निग्धरूक्षगुणाभ्यां परिणम्य द्वघणुकादिस्कन्धरूपविभावपर्यायैर्बहुविधो बहुप्रदेशो भवति तेन कारणेन बहुप्रदेशलक्षणकायत्वकारणस्वादुपचारेण कायो भण्यते । अथ मतं यथा-पद्गलपरमाणोद्रव्यरूपेणेकस्यापि द्वयणुकादिस्कन्धपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूपं कायत्वं जातं तथा कालाणोरपि द्रव्येणेकस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवतीति । तत्र परिहारः-स्निग्धरूक्षहेतुकस्य बन्धस्याभावान्न भवति । तदपि कस्मात् । स्निग्धरूक्षत्वं पुद्गलस्यैव धर्मो यतः कारणादिति। अणुत्वं पुद्गलसंज्ञा, कालस्याणुसंज्ञा कथमिति चेत् तत्रोत्तरम्-अणुशब्देन व्यवहारेण पुद्गला उच्यन्ते निश्चयेन तु वर्णादिगुणानां पूरणगलनयोगात्पुद्गला इति वस्तुवृत्त्या पुनरणुशब्दः सूक्ष्मवाचकः । तद्यथा-परमेण प्रकर्षेणाणुः । अणु कोऽर्थः व्याख्यार्थ-एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो" यद्यपि पुद्गलपरमाणु एकप्रदेशी है तथापि नानाप्रकारके द्वयणुक आदि स्कन्धरूप बहत प्रदेशोंके कारण बहुप्रदेशी होता है । "उवयारा" उपचार अर्थात् व्यवहारनयसे । "तेण य काओ भणंति सव्वण्हु" इसी हेतुसे सर्वज्ञ जिनदेव उसको ( पुद्गलपरमाणुको ) 'काय' कहते हैं। सो ही पुष्ट करते हैं कि जैसे यह परमात्मा शुद्ध निश्चयनयसे द्रव्यरूपसे शुद्ध तथा एक है तथापि अनादिकर्मबन्धनके वशसे स्निग्ध तथा रूक्ष गुणोंके स्थानापन्न ( एवज ) जो राग और द्वेष हैं उनसे परिणामको प्राप्त होकर, व्यवहारसे मनुष्य, नारक आदि विभाव पर्यायरूपसे अनेक प्रकारका होता है, ऐसे ही पुद्गल परमाणु भी यद्यपि स्वभावसे एक और शुद्ध है तथापि राग द्वेषके स्थानभूत जो बंधके योग्य स्निग्ध, रूक्ष गुण हैं उनसे परिणमनको प्राप्त होकर व्यणुक आदि स्कन्धरूप जो विभाव पर्याय हैं उनसे अनेक प्रदेशोंका धारक होता है। इसी हेतुसे बहुप्रदेशतारूप कायत्वके कारणसे पुद्गलपरमाणुको सर्वज्ञदेव उपचारसे 'काय' कहते हैं । अब यहाँपर यदि ऐसा किसोका मत हो कि जैसे द्रव्यरूपसे एक भी पुद्गलपरमाणुके द्वयणुक आदि स्कन्ध पर्यायरूपसे बहुप्रदेशरूप कायत्व सिद्ध हुआ है ऐसे ही द्रव्यरूपसे एक होनेपर भी कालाणुके समय, घटिका आदि पर्यायोंसे कायत्व सिद्ध होता है । इस शंकाका परिहार करते हैं कि स्निग्ध रूक्ष गुण हैं कारण जिसमें ऐसे बंधका कालद्रव्यमें अभाव है इस कारण वह 'काय' नहीं हो सकता। सो भी क्यों ? कि स्निग्ध तथा रूक्षपना जो है सो पुद्गलका ही धर्म है इसलिये कालमें स्निग्ध-रूक्षत्व हैं नहीं और उनके बिना बंध नहीं होता और बंधके बिना कालमें कायत्व नहीं सिद्ध होता। कदाचित् कहो कि 'अणु' यह पुद्गलकी संज्ञा है। कालकी 'अणु' संज्ञा कैसे हुई ? तो इसका उत्तर सुनो-"अणु" इस शब्दसे व्यवहारसे पुद्गल कहे जाते हैं और निश्चयसे तो वर्ण आदि गुणोंके पूरण तथा गलनके संबंधसे पुद्गल कहे जाते हैं, और यथार्थमें तो 'अणु' शब्द सूक्ष्मका वाचक है, जैसे परम अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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