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________________ ५८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार सूक्ष्म इति व्युत्पत्त्या परमाणुः। स च सूक्ष्मवाचकोऽणुशब्दो निविभागपुद्गलविवक्षायां पुद्गलाणुं वदति । अविभागिकालद्रव्यविवक्षायां तु कालाणुं कथयतीत्यर्थः ॥ २६ ॥ अथ प्रदेशलक्षणमुपलक्षयति; जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउदृद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ।। २७ ।। यावतिकं आकाशं अविभागिपुद्गलाण्वष्टब्धम् । तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानाहम् ।। २७॥ व्याख्या-"जावदियं आयासं अविभागीपुरगलाणुउदृद्धं तं खु पदेसं जाणे" यावत्प्रमाणमाकाशमविभागिपुद्गलपरमाणुना विष्टब्धं व्याप्तं तदाकाशं खु स्फुटं प्रदेशं जानीहि हे शिष्य । कथंभूतं "सव्वाणुटाणदाणरिह" सर्वाणूनां सर्वपरमाणूनां सूक्ष्मस्कन्धानां च स्थानदानस्यावकाशदानस्याहं योग्यं समर्थमिति । यत एवेत्थंभूतावगाहनशक्तिरस्त्याकाशस्य तत एवासंख्यातप्रदेशेऽपि लोके अनन्तानन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणपुद्गला अवकाशं लभन्ते । तथा चोक्तं जीवपुद्गलविषयेऽवकाशदानसामर्थ्यम् । “एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥१॥ उग्गाढगाढणिचिदो पुग्गलकाएहि सव्वदो लोगो। सुहुमेहि बादरेहि य गंतागंतेहिं विविहेहिं ॥२॥' अथ मतं मूर्तपुद्गलानां भेदो भवतु नास्ति विरोधः। अमूर्ताखण्डस्याप्रकर्ष ( अधिकता ) से जो अणु हो सो परमाणु है। इस व्युत्पत्तिसे परमाणु शब्द जो है वह अति सूक्ष्म पदार्थको कहनेवाला है। और वह सूक्ष्म वाचक 'अणु' शब्द निर्विभाग पुद्गलकी विवक्षामें तो 'पुद्गलाणु'को कहता है और अविभागी ( विभागरहित ) कालद्रव्यके कहनेकी जब इच्छा होती है तब 'कालाणु'को कहता है ।। २६ ।। अब प्रदेशका लक्षण दिखाते हैं गाथाभावार्थ-जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है उसको सब परमाणुओंको स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो ।। २७ ।। व्याख्यार्थ-"जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउदृद्धं तं खु पदेसं जाणे" हे शिष्य ! जितना आकाश विभागरहित पुद्गलपरमाणुसे व्याप्त है उसको स्पष्ट रूपसे प्रदेश जानो। वह प्रदेश कैसा है कि “सव्वाणुट्टाणदाणरिहं" सब परमाणु और सूक्ष्म स्कन्धोंको अवकाश ( स्थान ) देनेके लिये समर्थ है। इस प्रकारकी अवगाहनशक्ति जो आकाशमें है इसी हेतुसे असंख्यातप्रदेशप्रमाण लोकाकाशमें अनन्तानन्त जीव तथा उन जीवोंसे भी अनन्तगुणे पुद्गल अवकाशको प्राप्त होते हैं। सो ही जीव तथा पुद्गलके विषयमें इसके अवकाश देनेका सामर्थ्य आगममें कहा है। "एक निगोद शरीरमें द्रव्यप्रमाणसे भूतकालके सब सिद्धोंसे अनंतगुणे जीव देखे गये हैं। १ । यह लोक सब तरफसे विविध तथा अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलकायोंद्वारा अतिसघनताके साथ भरा हुआ है । २ ।" अब कदाचित् किसीका ऐसा मत हो कि "मूर्तिमान् पुद्गलोंका तो अणु तथा द्वयणुक स्कन्ध आदि विभाग हो, इसमें कुछ विरोध नहीं है, परन्तु अखंड तथा अमूर्त आकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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