________________
षड्द्र व्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
काशद्रव्यस्य कथं विभागकल्पनेति । तन्न | रागाधुपाधिरहितस्वसंवेदनप्रत्यक्षभावनोत्पन्नसुखामृतरसास्वादतृप्तस्य मुनियुगलस्यावस्थानक्षेत्रमेकमनेक वा। यद्य कं तहि द्वयोरेकत्वं प्राप्नोति न च तथा । भिन्नं चेत्तदा निविभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति ॥ २७ ॥ एवं सूत्रपञ्चकेन पञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा तृतीयोऽन्तराधिकारः॥
इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिदेवविरचिते द्रव्यसंग्रहग्रन्थे नमस्कारादिसप्तविंशतिगाथाभिरन्तराधिकारत्रयसमुदायेन षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादक
नामा प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥१॥
द्रव्यकी विभाग कल्पना कैसे हो सकती है ?" यह शंका ठीक नहीं । क्योंकि, राग आदि उपाधियोंसे रहित, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भावनासे उत्पन्न जो सुखरूप अमृतरस है उसके आस्वादनसे तृप्त ऐसे मुनियुगल ( दो मुनियों ) के रहनेका स्थान एक है अथवा अनेक ? यदि दोनोंका निवासक्षेत्र एक ही है तब तो दोनोंकी एकता हुई; परन्तु ऐसा नहीं है। और यदि भिन्न मानो तो घटके आकाश तथा पटके आकाशकी तरह विभागरहित आकाश द्रव्यकी भी विभागकल्पना सिद्ध हुई ॥ २७॥ ऐसे पाँच सूत्रोंद्वारा पंच अस्तिकायोंका निरूपण करनेवाला तृतीय अन्तराधिकार समाप्त हुआ। इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिदेवविरचितद्रव्यसंग्रहस्य श्रीब्रह्मदेवनिर्मितसंस्कृतटीकायाः जयपुरनिवासिशास्त्रीत्युपाधिधारकश्रीजवाहरलालदि०जैनप्रणीतभाषानुवादे नमस्कारादिसप्तविंशतिगाथाभिरन्तराधिकारत्रयसमुदायेन षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोऽन्त
राधिकारः समाप्तः ॥ १॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org