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________________ चूलिका अतः परं पूर्वोक्तषड्द्रव्याणां चूलिकारूपेण विस्तरव्याख्यानं क्रियते । तद्यथा परिणामि-जीव-मुत्तं, सपदेसं एय-खेत्त-किरिया य । णिच्चं कारण-कत्ता, सव्वगदमिदरंहि यपवेसे ॥ १ ॥ दुण्णि य एयं एयं, पंच-त्तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एयं एयं, एदेसं एय उत्तरं णेयं ॥ युग्मम् ।। २२ ।। व्याख्या-"परिणामि" इत्यादिव्याख्यानं क्रियते। परिणामपरिणामिनो जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपर्यायाभ्यां कृत्वा, शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यञ्जनपर्यायाभावान्मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनीति । "जोव" शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते तेन जीवतीति जीवः । व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुभिः प्राणैर्जीवति, जीविष्यति, जीवितपूर्वो वा जीवः । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीवरूपाणि । "मुत्तं" शुद्धात्मनो ____ अब इसके पश्चात् षद्रव्योंकी चूलिका (परिशिष्ट अथवा उपसंहार ) रूपसे विशेष व्याख्यान करते हैं । सो इस प्रकार है ___ गाथाभावार्थ-पूर्वोक्त षद्रव्योंमेंसे परिणामी द्रव्य जीव और पुद्गल ये दो हैं । चेतन द्रव्य एक जीव है, मूर्तिमान एक पुद्गल हैं, प्रदेशसहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पाँच द्रव्य हैं, एक संख्यावाले धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य हैं, क्षेत्रवान् एक आकाश द्रव्य है, क्रियासहित जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, नित्यद्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार हैं, कारणद्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच हैं, कर्ताद्रव्य--एक जीव है, सर्वगत ( सर्वमें व्यापनेवाला ) द्रव्य-एक आकाश है, और ये छहों द्रव्य प्रवेशरहित हैं अर्थात् एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यका प्रवेश नहीं होता है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्योंके उत्तरगुण जानने चाहिए ॥ २ ॥ यहाँ इन दोनों गाथाओंको मिलाकर अर्थ कहा गया है। व्याख्यार्थ-"परिणामि" इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते हैं-स्वभाव तथा विभाव पर्यायोंकरके परिणामसे परिणामी जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं। और शेष ( बाकीके ) चार द्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य विभावव्यंजनपर्यायके अभावसे मुख्यतासे अपरिणामी हैं। "जीव" शुद्ध निश्चयनयसे निर्मल ज्ञान तथा दर्शन स्वभावका धारक जो शुद्ध चैतन्य है उसोको प्राण शब्दसे कहते हैं, उस शुद्ध चैतन्यरूप प्राणसे जो जोता है वह जोव है; ( १ ) यह गाथा यद्यपि संस्कृतटीकाकी प्रतियों में नहीं है, तथापि टीकाकारने इसका आशय ग्रहण किया है और जयचंद्रजीकृत द्रव्यसंग्रहको वचनिका तथा मूल मुद्रित पुस्तकमें उपलब्ध होती है, अतः उपयोगी समझकर, यहाँ लिख दी गई है । ( २ ) ये दोनों गाथायें अन्य ग्रन्थकी है (वसुनन्दिश्रावका० २३, २४) इसलिये इनमें मूलक्रमप्राप्तसंख्या नहीं लगाई गई है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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