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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार कापर्यन्ताः पञ्च तेन कारणेनैतेऽस्तीति भणन्ति जिणवराः सर्वज्ञाः । " जम्हा काया इव बहुदेसा तम्हा काया य" यस्मात्काया इव बहुप्रदेशास्तस्मात्कारणात्कायाश्च भणति जिनवराः । " अत्थिकाया य" एवं न केवलं पूर्वोक्तप्रकारेणास्तित्वेन युक्ता अस्तिसंज्ञास्तथैव कायत्वेन युक्ताः कायसंज्ञा भवन्ति किन्तु मेला नास्तिकायसंज्ञाश्च भवन्ति ॥ इदानों संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽप्यस्तित्वेन सहाभेदं दर्शयति । तथाहि - शुद्ध जीवास्तिकाये सिद्धत्वलक्षणः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः, केवलज्ञानादयो विशेषगुणाः अस्तित्ववस्तुत्व | गुरुलघुत्वादयः सामान्यगुणाश्च । तथैवाव्याबाधनिन्तसुखाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादो रागादिविभावरहितपरमस्वास्थ्यरूपस्य कारणसमयसारस्य व्ययस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमित्युक्तलक्षणैर्गुण पर्यायैरुत्पादव्ययध्रौव्यैश्च सह मुक्तावस्थायां संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सत्तारूपेण प्रदेशरूपेण च भेदो नास्ति । कस्मादिति चेत्मुक्तात्मसत्तायां गुणपर्यायाणामुत्पादव्ययध्रौव्याणां चास्तित्वं सिद्धयति, गुणपर्यायोत्पादव्ययध्रौव्यसत्तायाश्च मुक्तात्मास्तित्वं सिद्धयतीति परस्परसाधितसिद्धत्वादिति । कायत्वं कथ्यते - बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते । यथा शुद्धगुण ५४ पर्यन्त ये पूर्वोक्त पाँच द्रव्य विद्यमान हैं इसलिये सर्वज्ञ देव इनको "अस्ति" ( है ) ऐसा कहते हैं । "जम्हा काया इव बहुदेसा तम्हा काया य" और काय अर्थात् शरीरके सदृश ये बहुत प्रदेशोंके धारक हैं इस कारण से जिनेश्वर इनको 'काय' कहते हैं । "अत्थिकाया य" पूर्वोक्त प्रकार अस्तित्व से युक्त ये पाँचों केवल अस्तिसंज्ञक ही नहीं हैं, तथा कायत्वसे युक्त केवल काय संज्ञाके धारक ही नहीं हैं, किन्तु अस्ति और काय इन दोनों को मिलानेसे "अस्तिकाय" संज्ञाके धारक होते हैं । अब इन पाँचोंके संज्ञा, लक्षण, तथा प्रयोजन आदिसे यद्यपि परस्पर भेद हैं तथापि अस्तित्व के साथ अभेद है यह दर्शाते हैं : -- जैसे शुद्ध जीवास्तिकायमें सिद्धत्व लक्षण शुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है, केवल ज्ञान आदि विशेष गुण हैं, तथा अस्तित्व, वस्तुत्व और अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं । और जैसे मुक्तिदशामें अव्याबाध अर्थात् बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त गुणोंकी व्यक्ति ( प्रकटता ) रूप कार्यं समयसारका उत्पाद, राग आदि विभावोंसे शून्य परम स्वास्थ्य स्वरूप कारणसमयसारका व्यय ( नाश ); और इन दोनोंके अर्थात् उत्पाद तथा व्ययके आधारभूत परमात्मरूप जो द्रव्य है उस रूपसे धौव्य ( स्थिरत्व ) है । इस प्रकार पूर्वकथित लक्षणयुक्त गुण तथा पर्यायोंसे और उत्पाद, व्यय तथा धौव्यके साथ मुक्त अवस्था में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदिका भेद होनेपर भी सत्तारूपसे और प्रदेशरूपसे किसीका किसीके साथ भेद नहीं है । क्योंकि, जीवोंकी मुक्तिअवस्थामें गुण, द्रव्य तथा पर्यायोंकी और उत्पाद, व्यय तथा धौव्यरूप लक्षणोंकी विद्यमानता ( सत्ता ) सिद्ध होती है और गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय तथा श्रव्यकी सत्ताके अस्तित्वको मुक्त आत्मा जो है वह सिद्ध करता है । इस प्रकार गुण पर्याय आदि मुक्त आत्माकी और मुक्त आत्मा गुण पर्यायकी सत्ताको परस्पर सिद्ध करते हैं । अब इनके कायत्वका निरूपण करते हैं, - बहुतसे प्रदेशों में व्याप्त होके स्थितिको देखके जैसे शरीरको कार्यत्व कहते हैं अर्थात् जैसे शरीरमें अधिक प्रदेश होने से शरीरको काय कहते है, उसी प्रकार अनंत ज्ञान आदि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेलको देखके, मुक्त जीव में भी कायत्वका व्यवहार अथवा कथन होता है । जैसे शुद्ध गुण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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