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________________ १७४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार दर्शनज्ञानसमग्रं मार्ग मोक्षस्य यः हि चारित्रम् । साधयति नित्यशुद्धं साधुः सः मुनिः नमः तस्मै ॥ ५४॥ व्याख्या-'साहू स मुणी' स मुनिः साधुर्भवति । यः किं करोति-'जो हु साधयदि' यः कर्ता हु स्फुटं साधयति । कि 'चारित्तं' चारित्रं । कथम्भूतं 'दंसणणाणसमग्गं वीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यां समग्रं परिपूर्णम् । पुनरपि कथम्भूतं 'मग्गं मोक्खस्स' मार्गभूतं । कस्य मोक्षस्य । पुनश्च कि रूपं 'णिच्चसुद्ध' नित्यं सर्वकालं शुद्धं रागादिरहितम् । 'णमो तस्स' एवं गुणविशिष्टो यस्तस्मै साधवे नमो नमस्कारोस्त्विति । तथाहि-"उद्योतनमुद्योगो निर्वहणं साधनं च निस्तरणम् । दृगवगमचरणतपसामाख्याताराधना सद्भिः।१।" इत्यार्याकथितबहिरङ्गचतुर्विधाराधनाबलेन, तथैव "समत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवो चेव । चउरो चिट्ठहि यादे तम्हा आदा हु मे सरणं । १।" इति गाथाकथिताभ्यन्तरनिश्चयचतुर्विधाराधनाबलेन च बाह्यान्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभूतं स्वशुद्धात्मानं साधयति भावयति स साधुर्भवति । तस्यैव सहजशुद्धसदानन्दैकानुभूतिलक्षणो भावनमस्कारस्तथा 'णमो लोए सव्वसाहूणं' द्रव्यनमस्कारश्च भवत्विति ॥ ५४॥ एवमुक्तप्रकारेण गाथापञ्चकेन मध्यमप्रतिपत्त्या पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपं ज्ञातव्यम् । अथवा निश्चयेन "अरिहासिद्धायरियाउवज्झायासाधु पंचपरमेट्टी। ते विहु चिट्टहि यादे तम्हा आदा हु मे सरणं । १।" इति गाथाकथितक्रमेण संक्षेपेण, तथैव विस्तरेण पञ्चपरमेष्ठिग्रन्थकथितक्रमण, प्रकट रूपसे साधते हैं वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं उनके अर्थ मेरा नमस्कार हो ॥ ५४ ।। व्याख्यार्थ-"जो' जो 'हु' भले प्रकारसे "दसणणाणसमग्गं" वीतराग सम्यग्दर्शन और ज्ञानसे परिपूर्ण, "मग्गं मोक्खस्स" मोक्षका मार्ग (कारण) भूत, “णिच्चसुद्ध" सदा शुद्ध अर्थात् रागद्वेषादि रहित ऐसे "चारित्तं" चारित्रको “साधयदि" साधते हैं “साहू स मुणी" वे मुनि साधु हैं "णमो तस्स' इन पूर्वोक्त गुणोंसे सहित जो हैं उन साधु परमेष्ठियोंके अर्थ नमस्कार हो । सो ही स्पष्टरूपसे दिखलाते हैं कि-"दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनका जो उद्योतन, उद्योग, निर्वहण. साधन और निस्तरण है उसको सतपरुषोंने आराधना कही है।१।" इस आर्याछन्दसे कही हई जो बहिरंग दर्शन. ज्ञान. चारित्र और तपभेदोंसे चार प्रकारकी आराधना है उस आराधनाके बलसे तथा इसी प्रकार "सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यकचारित्र और सत्तप ये चारों आत्मामें निवास करते हैं इस कारण आत्मा ही मेरे शरणभूत है । १।" इस गाथामें कही हुई जो निश्चय नयसे अभ्यन्तरकी चार आराधना हैं उनके बलसे अर्थात बाह्य मोक्षमार्ग और अभ्यन्तर मोक्षमार्ग करके जो वीतरागचारित्रका अविनाभूत निज शुद्ध आत्माको साधते हैं अर्थात् भावते हैं; वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। उन्हींके लिये मेरा स्वभावसे उत्पन्न-शुद्ध-ऐसे सदानन्दकी अनुभूतिलक्षण भावनमस्कार तथा "णमो लोए सव्वसाहूणं" इस पदके उच्चारणरूप द्रव्यनमस्कार हो ॥ ५४॥ इस कहे हुए प्रकारसे पाँच गाथाओंद्वारा मध्यम रुचिके धारक शिष्योंको ज्ञान होनेके लिये पंच परमेष्ठीके स्वरूपका कथन किया गया है। यह जानना चाहिये । अथवा निश्चयनयसे "अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी जो हैं वे भी आत्मामें ही तिष्ठते हैं; इस कारण आत्मा ही मेरे शरणभूत है । १।" इस गाथामें कहे हुए क्रमानुसार संक्षेपसे पंच परमेष्ठियोंका स्वरूप जानना चाहिये । और विस्तारसे पंच परमेष्ठियोंका स्वरूप पञ्चपरमेष्टी नामक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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