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मोक्षमार्ग वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
१७५
अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनाविधिरूपमन्त्रवादसं बन्धिपञ्चनमस्कारग्रन्थे चेति । एवं गाथापञ्चकेन द्वितीयस्थलं गतम् ।
अथ तदेव ध्यानं विकल्पित निश्चयेनाविकल्पितनिश्चयेन प्रकारान्तरेणोपसंहाररूपेण पुनरप्याह । तत्र प्रथमपादे ध्येयलक्षणं, द्वितीयपादे ध्यातृलक्षणं, तृतीयपादे ध्यानलक्षणं चतुर्थपादेन नविभागं कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति; -
जं किंचिवि चितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू |
लणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं ।। ५५ ।।
यत् किञ्चित् अपि चिन्तयन् निरीहवृत्तिः भवति यदा साधुः । लब्ध्वा च एकत्वं तदा आहुः तत् तस्य निश्चयं ध्यानम् ॥ ५५ ॥
व्याख्या- 'तदा' तस्मिन् काले । 'आहु' आहुर्बुवन्ति 'तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं' तत्तस्य निश्चयध्यानमिति । यदा किं ? 'णिरीहवित्ती हवे जदा साहू' निरीहवृत्तिनिस्पृह वृत्तिर्यदा साधुर्भवति । कि कुर्वन् ? 'जं किचिवि चितंतो' यत् किमपि ध्येयवस्तुरूपेण वस्तु चिन्तयन्निति । किं कृत्वा पूर्वं ? 'लद्धूणय एयत्तं' तस्मिन् ध्येये लब्ध्वा । कि ? एकत्वं एकाग्रचिन्तानिरोधनमिति । अथ विस्तार:यत् किञ्चिद् ध्येयमित्यनेन किमुक्तं भवति ? प्राथमिकापेक्षया सविकल्पावस्थायां विषयकषायवञ्चनाथं चित्तस्थिरीकरणार्थं पञ्चपरमेष्ठद्यादिपरद्रव्यमपि ध्येयं भवति । पश्चादभ्यासवशेन
ग्रन्थमें कहे हुए क्रमसे जानना चाहिए । तथा अत्यन्तविस्तार से सिद्धचक्र आदि देवोंके पूजनविधिरूप जो मन्त्रवादसम्बन्धी "पंचनमस्कार माहात्म्य" नामक ग्रन्थ है उसमें पंच परमेष्ठियों का स्वरूप जानना चाहिये । इस प्रकार पाँच गाथाओंसे दूसरा स्थल समाप्त हुआ ।
अब फिर भी उसी ध्यानको विकल्पितनिश्चय और अविकल्पितनिश्चयरूप जो अन्य प्रकार हैं उनसे संक्षेप करके कहते हैं । उसमें गाथाके प्रथम पादमें ध्येयका लक्षण कहता हूँ, द्वितीय पादमें ध्याता (ध्यान करनेवाले) का लक्षण कहता हूँ, तीसरे पादमें ध्यानका लक्षण कहता हूँ और चौथे पाद (चरण) से नयोंके विभागको कहता हूँ । इस अभिप्रायको मनमें धारण करके भगवान् श्री नेमिचन्द्रस्वामी इस अग्रिम सूत्रका प्रतिपादन करते हैं;
गाथा भावार्थ - ध्येय पदार्थ में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी पदार्थको ध्यावता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्तिं (सब प्रकारकी इच्छाओंसे रहित) होता है उस समय उसका ध्यान निश्चय ध्यान होता है ऐसा आचार्य कहते हैं ||५५ ॥
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व्याख्यार्थ - "लक्षूणय एयत्तं" उस ध्येय पदार्थ में एकाग्रचिन्ताके निरोधको प्राप्त होकर अर्थात् एकचित्त होकर "जं किंचिवि चितंतो" जिस किसी पदार्थका ध्येयवस्तुके रूपसे चितवन करता हुआ "णिरीहवित्ती हवे जदा साहू" साधु जब निस्पृह वृत्तिको धारण करनेवाला होता है " तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं" उस समय आचार्य महाराज साधुके उस ध्यानको निश्चय ध्यान कहते हैं । अब विस्तारसे वर्णन करते हैं - गाथामें जो 'यत् किंचित् ध्येयम्' अर्थात् 'जिस किसी भी ध्येय पदार्थको ऐसा पद है उससे क्या कहा गया है ? ध्यानकी प्रथम ही आरम्भ करने की अपेक्षासे जो सविकल्प अवस्था है उसमें विषय और कषायों को दूर करनेके लिये तथा चित्तको स्थिर करनेके लिये पंच परमेष्ठी आदि जो परद्रव्य हैं, वे भी ध्येय होते हैं, फिर जब
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