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________________ १७६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीय अधिकार स्थिरीभूते चित्ते सति शुद्धबुद्ध कस्वभावनिजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयमित्युक्तं भवति । निस्पृहवचनेन पुनमिथ्यात्वं वेदत्रयं हास्यादिषट्कक्रोधादिचतुष्टयरूपचतुर्दशाऽभ्यन्तरपरिग्रहेण तथैव क्षेत्रवास्तु. हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यभाण्डाऽभिधानदशविधबहिरङ्गपरिग्रहेण च रहितं ध्यातृस्वरूपमुक्तं भवति । एकाग्रचिन्तानिरोधेन च पूर्वोक्त विविधध्येयवस्तुनि स्थिरत्वं निश्चलत्वं ध्यानलक्षणं भणितमिति । निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्यः । निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्यः । निश्चय निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्यः विशेषनिश्चयः पुनरने वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ ___अथ शुभाशुभमनोवचनकायनिरोधे कृते सत्यात्मनि स्थिरो भवति तदेव परमध्यानमित्युपदिशति; मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किंवि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥५६॥ मा चेष्टत मा जल्पत मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः इदं एव परं भवति ध्यानं ॥५६॥ व्याख्या-'मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह किंवि' नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुअभ्यासके वशसे चित्त स्थिर हो जाता है तब शुद्ध-बुद्ध एकस्वभावका धारक जो निज-शुद्ध आत्मा है उसका स्वरूप ही ध्येय होता है; यह कहा गया है। और 'निस्पृहवृत्ति होकर' यह जो वचन है इससे मिथ्यात्व १, वेद २, स्त्रीवेद ३, नपुंसकवेद ४, हास्य ५, रति ६, अरति ७, शोक ८, भय ९, जुगुप्सा १०, क्रोध ११, मान १२, माया १३, और लोभ १४, इन रूप चौदह प्रकारके अन्तरंग परिग्रहसे रहित तथा इसीप्रकार क्षेत्र १, वास्तु २, हिरण्य ३, सुवर्ण ४, धन ५, धान्य ६, दासी ७, दास ८, कुप्य ९, और भांड १०, नाम दशप्रकारके बहिरंग परिग्रहसे रहित ध्यान करनेवालेका स्वरूप कहा गया है । और 'एकाग्रचिन्तानिरोधको प्राप्त होकर' इस कथनसे पूर्वोक्त नाना प्रकारके ध्यान करनेयोग्य पदार्थों में जो निश्चलपना है उसको ध्यानका लक्षण कहा है । और “निश्चय ध्यान कहते हैं" यहाँपर जो निश्चय शब्द हैं उससे अभ्यास करनेवाले पुरुषकी अपेक्षासे तो व्यवहाररत्नत्रयके अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिये और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है ऐसे पुरुषकी अपेक्षासे शुद्धोपयोगरूप लक्षणका धारक विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय ग्रहण करना चाहिये। इससे विशेष (ऊँचेदर्जेका) जो निश्चय है वह आगेके सूत्र में कहा है। इस प्रकार सूत्रका अर्थ है ।।५५।। अब ध्यान करनेवाला पुरुष शुभ अशुभरूप मन, वचन और कायका निरोध कर चुकने पर जो आत्मामें स्थिर होता है वह आत्मामें स्थिर होना ही परम ध्यान है ऐसा उपदेश देते हैं; गाथाभावार्थ-हे ज्ञानीजनो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात् कायके व्यापारको मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो। जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मामें तल्लीन स्थिर होवे; क्योंकि जो आत्मामें तल्लीन होना है वही परमध्यान है ॥५६॥ व्याख्यार्थ-हे ज्ञानी जनो ! "मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह किवि" नित्य निरंजन और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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