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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार तद्यथा आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपावा जे । जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥ २८ ॥ आस्रवबन्धनसंवरनिर्जरमोक्षाः सपुण्यपापाः ये। जीवाजीवविशेषाः तान् अपि समासेन प्रभणामः ॥ २८॥ व्याख्या--."आसव" निरास्रवस्वसंवित्तिविलक्षणशुभाशुभपरिणामेन शुभाशभकर्मागमनमानवः । "बंधण" बन्धातीतशुद्धात्मोपलम्भभावनाच्युतजीवस्य कर्मप्रदेशः सह संश्लेषो वन्धः। “संवर" कर्मास्रवनिरोधसमर्थस्वसंवित्तिपरिणतजीवस्य शुभाशुभकर्मागमनसंवरणं संवरः। "णिज्जर" शुद्धोपयोगभावनासामर्थ्येन नीरसीभूतकर्मपुद्गलानामेकदेशगलनं निर्जरा । “मोक्खो" जीवपदगल संश्लेषरूपबन्धस्य विघटने समर्थः स्वशुद्धात्मोपलब्धिपरिणामो मोक्ष इति । “सपुण्णपावा जे" पुण्यपापसहिता ये "ते वि समासेण पभणामो" यथा जीवाजीवपदार्थों व्याख्यातो पूर्व तथा तानप्यास्त्रवादिपदार्थान् समासेण संक्षेपेण प्रभणामो वयं, ते च कथंभूताः "जीवाजीवविसेसा" __इस पूर्वोक्त प्रकारसे अनेकान्त ( स्याद्वाद ) का आश्रय कर कथन करनेसे आस्रव, बंध, पुण्य और पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोगपरिणामरूप जो विभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं । और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोगरूप परिणामके विनाशसे उत्पन्न जो विवक्षित स्वभावपर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं, यह निश्चय हुआ ॥ अव पूर्वोक्त पदार्थोंका निरूपण करते हैं, सो इस प्रकार है गाथाभावार्थ-अव जो आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ऐसे सात जीव, अजीवके भेदरूप पदार्थ हैं; इनको भी संक्षेपसे कहते हैं । २८ ।। व्याख्यार्थ-''आसव" आस्रवसे रहित जो निज आत्माका ज्ञान है उससे विलक्षण जो शुभ तथा अशुभ परिणाम है उस परिणामसे जो शुभ और अशुभ कर्मोका आगमन है सो आस्रव है। "बंधण" वंधसे रहित जो शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्तिस्वरूप जो भावना है उस भावनासे गिरे हुए जीवका जो कर्मके प्रदेशोंके साथ परस्पर बंध है, इसको वंध कहते हैं । "संवर" कर्मों के आस्रवको रोकने में समर्थ जो निज आत्मज्ञान है उस ज्ञानमें परिणत जीवके जो शुभ तथा अशुभ कर्मोके आनेका निरोध है वह संवर है। "णिज्जर" शुद्ध उपयोगकी भावनाके बलसे नीरसीभूत ( शक्तिहीन हुए ) हुए ऐसे कर्मपुद्गलोंका जो एकदेशसे गलन अर्थात् नाश है उसको निर्जरा कहते हैं । 'मोक्खो" जोव तथा पुद्गलका जो परस्पर मेलन रूप बंध है उस बंधको नाश करने में समर्थ जो निजगुद्ध आत्माकी प्राप्तिरूप परिणाम है वह मोक्ष कहा जाता है। "सपुण्णपावा जे" पुण्य तथा पाप सहित जो आस्रव आदि पदार्थ हैं "ते वि समासेण पभणामो" उनको भी जैसे पहले जीव, अजीव कहे उसी प्रकार संक्षेपसे हम कहते हैं और वे कैसे हैं कि "जीवाजीवविसेसा" जीव तथा अजीवके विशेष अर्थात् पर्याय हैं । तात्पर्य यह कि चैतन्य आस्रव आदि तो जीवके अशुद्ध परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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