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सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः द्रव्यरूपाणां यत्कर्तृत्वं तदप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायरूपाणां तु विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेनेति । परमशुद्धनिश्चयेन तु "ण वि उप्पज्जइ, ण वि मरइ, बंधु ण मोक्खु करेइ । जिउ परमत्थे जोइया, जिणवरु एम भणेइ ॥१॥" इति वचनादबन्धमोक्षौ न स्तः । स च पूर्वोक्तविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय आगमभाषया किं भण्यते-स्वशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपेण भविष्यतीति भव्यः, एवंभूतस्य भव्यत्वसंज्ञस्य पारिणामिकभावस्य संबन्धिनी व्यक्तिभंण्यते । अध्यात्मभाषया पुनद्रव्यशक्तिरूपशद्धपारिणामिकभावविषये भावना भण्यते, पर्यायनामान्तरेण निर्विकल्पसमाधिर्वा शुद्धोपयोगादिकं वेति । यत एव भावना मुक्तिकारणं तत एव शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति ध्यानभावनारूपो न भवति । कस्मादिति चेत्-ध्यानभावनापर्यायो विनश्वरः स च द्रव्यरूपत्वादविनश्वर इति । इदमत्र तात्पयं-मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालरहितनिजशुद्धात्मभावनोत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखसंवित्तिरूपा च भावनामुक्तिकारणं भवति । तां च कोऽपि जनः केनापि पर्यायनामान्तरेण भणतीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेणानेकान्तव्याख्यानेनास्रवबन्धपुण्यपापपदार्थाः जीवपुद्गलसंयोगपरिणाम रूपविभाव पर्यायेणोत्पद्यन्ते। संवरनिर्जरामोक्षपदार्थाः पुनर्जीवपुद्गलसंयोगपरिणामविनाशोत्पन्नेन विवक्षितस्वभावपर्यायेणेति स्थितम् ॥
विभागका निरूपण करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवके जो पुद्गल द्रव्यपर्यायरूप आस्रव, बन्ध तथा पुण्य पापपदार्थोंका कर्त्तापना है सो अनुपचरित असद्भ तव्यवहारनयकी अपेक्षासे है और जीव भाव ( देव मनुष्य आदि ) पर्याय रूप पदार्थोंका कर्तृत्व अशुद्ध निश्चयनयसे है। तथा सम्यग्दृष्टि जीव जो द्रव्यरूप संवर, निर्जरा तथा मोक्ष पदार्थका कर्ता है; सो भी अनुपचरित असद्भ त व्यवहार नयसे ही है । तथा जीव भावपर्याय रूपोंका जो कर्ता है सो विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चय नयसे है । और परम शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे तो "जो परमार्थ दृष्टिसे देखें तो यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बन्ध तथा न मोक्षको करता है, इस प्रकार श्रीजिनेन्द्र कहते हैं।" इस वचनसे जीवके बन्ध और मोक्ष ही नहीं है। इसलिये विवक्षितैकदेश शुद्ध निश्चयनयसे ही जीवभावपर्यायोंका जीवको कर्तृत्व है। अब आगमभाषासे क्या कहते हैं सो दर्शाते हैं-निज शुद्ध आत्माके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान तथा आचरण रूपसे जो होगा उसे भव्य कहते हैं, इस प्रकारका जो भव्यत्व संज्ञाका धारक जीव है उसके पारिणामिकभावसे संबंध रखनेवाली व्यक्ति कही जाती है अर्थात् भव्यके पारिणामिकभावकी व्यक्ति (प्रकटता)है । और अध्यात्मभाषासे द्रव्यशक्तिरूप जो शुद्ध भाव है उसके विषयमें भावना कहते हैं। अन्य नामोंसे इसी द्रव्यशक्तिरूप पारिणामिकभावको भावनाको निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोग आदि कहते हैं। भावना मुक्तिका कारण है । इसी कारण जो शुद्ध पारिणामिकभाव है वह ध्येय (ध्यान करने योग्य) रूप होता है और ध्यानरूप नहीं होता । ऐसा क्यों होता है यह पूछो तो उत्तर यह है कि ध्यानभावना पर्याय है सो तो विनाशका धारक है और ध्येयभावना पर्याय द्रव्यरूप होनेसे विनाशरहित है। तात्पर्य यहाँपर यह है कि मिथ्यात्व, राग आदि जो विकल्पोंके समूह हैं उनसे रहित जो निजशुद्ध आत्मा उसकी भावनासे उत्पन्न सहज ( स्वभावसे उत्पन्न ) आनन्द रूप एक सुखके ज्ञानको धारण करनेवाली जो भावना है वही मुक्तिका कारण है । उसी भावनाको कोई पुरुष किसी ( निर्विकल्प ध्यान, शुद्धोपयोग आदि रूप ) अन्य नामके द्वारा कहता है ॥
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