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________________ ६६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार निर्जराद्वयं तस्य कारणं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव निजात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्साधकं व्यवहाररत्नत्रयरूपं चेति । इदानीं हेयतत्त्वं कथ्यते -आकुलत्वोत्पादकं नारकादिदुःखं निश्चयेनेन्द्रियसुखं च यतत्त्वम् । तस्य कारणं संसारः, संसारकारणमात्रवबन्धपदार्थद्वयं तस्य कारणं पूर्वोक्तव्यवहारनिश्चयरत्नत्रयाद्विलक्षणं मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रत्रयमिति । एवं हेयोपादेयतत्त्वव्याख्याने कृते सति सप्ततत्त्वनवपदार्थाः स्वयमेव सिद्धाः । 1 इदानीं कस्य पदार्थस्य कः कर्त्तेति कथ्यते - निजनिरञ्जन शुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादपराङ्मुखो बहिरात्मा भण्यते । स चात्रवबन्ध पापपदार्थस्य कर्त्ता भवति । क्वापि काले पुनर्मन्दमिथ्यात्वमन्दकषायोदये सति भोगाकाङ्क्षादिनिदानबन्धेन भाविकाले पापानुबन्धिपुण्यपदार्थस्यापि कर्त्ता भवति । यस्तु पूर्वोक्तबहिरात्मनो विलक्षण: सम्यग्दृष्टिः स संवरनिर्जरामोक्षपदार्थत्रयस्य कर्त्ता भवति । रागादिविभावरहितपरमसामायिके यदा स्थातुं समर्थो न भवति तदा विषयकषायोत्पन्न दुर्ध्यानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदं कुर्वन् पुण्यानुबन्धितीर्थकरनामप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यपदार्थस्य कर्त्ता भवति । कर्तृत्वविषये नयविभागः कथ्यते । मिथ्यादृष्टेर्जीवस्य पुद्गलद्रव्य पर्याय रूपाणामात्रवबन्धपुण्यपापपदार्थानां कर्तृत्वमनुपचरितासभूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायरूपाणां पुनरशुद्ध निश्चयन येनेति । सम्यग्दृष्टस्तु संवरनिर्जरामोक्षपदार्थानां विशुद्ध -- ज्ञानदर्शनस्वभावका धारक जो निजात्मा है उसके स्वरूपका सम्यग्श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण करनेरूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप है, और उस निश्चय रत्नत्रयको साधनेवाला व्यवहाररत्नत्रय है । अब यतत्त्वका कथन करते हैं-आकुलताको उत्पन्न करनेवाला जो नरकगति आदिका दुःख तथा इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सुख है वह हेय (त्याज्य) तत्त्व है, उसका कारण संसार है और संसार के कारण आस्रव तथा बंध ये दो पदार्थ हैं, और उस आस्रवका तथा बंधका कारण पूर्वकथित जो व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय है उससे विपरीत लक्षणके धारक मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र ये तीन हैं। इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्वका निरूपण करनेपर सप्ततत्त्व तथा नव पदार्थ स्वयं ही सिद्ध हो गये ॥ ra किस पदार्थका कौन कर्ता है इस विषयका उपदेश करते हैं । निज निरंजन शुद्ध आत्मा जो है उसकी भावना (चितवन) से उत्पन्न जो परम आनन्दरूप लक्षणवाला सुखामृतका रस है। उसके आस्वादसे पराङ्मुख ( रहित ) जो जीव है वह बहिरात्मा कहलाता है । वह बहिरात्मा आस्रव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थोंका कर्त्ता होता है; और किसी समय जब कषाय और मिथ्यात्वका उदय मन्द होता है तब भोगोंकी अभिलाषा आदि रूप निदानके बन्धसे पापसे सम्बन्ध रखनेवाले पुण्यपदार्थका भी कर्त्ता होता है । तथा जो पूर्वोक्त बहिरात्मासे विपरीत लक्षणका धारक सम्यग्दृष्टि जीव है वह संवर, निर्जरा तथा मोक्ष इन तीन पदार्थोंका कर्त्ता होता है, और यह सम्यग्दृष्टि जीव जिस समय राग आदि विभावोंसे रहित जो परम सामायिक है उसमें स्थित रहनेको समर्थ नहीं होता है उस समय विषयकषायोंसे उत्पन्न जो दुर्ध्यान उसके वंचनार्थ अर्थात् न होनेके लिये संसारकी स्थितिका नाश करता हुआ पुण्यसे सम्बन्ध रखनेवाला जो तीर्थंकर नाम प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ है उसका कर्त्ता होता है । अब कर्तृत्व के विषय में नयों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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