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________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ६५ जनितं पर्यायान्तरं परिणति गृह्णाति । यद्यप्युपाधि गृह्णाति तथापि निश्चयेन शुद्धस्वभावं न त्यजति तथा जीवोsपि यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सहजशुद्ध चिदानन्दैकस्वभावस्तथाप्यनादिक संबन्धपर्यायवशेन रागादिपरद्रव्योपाधिपर्यायं गृह्णाति । यद्यपि परपर्यायेण परिणमति तथापि निश्चयेन शुद्धस्वरूपं न त्यजति । पुद्गलोऽपि तथेति । परस्परसापेक्षत्वं कथंचित्परिणामित्वशब्दस्यार्थः । एवं कथंचित्परिणामित्वे सति जीवपुद्गलसंयोगपरिणतिनिर्वृत्तत्वादात्रवादिसप्तपदार्था घटन्ते । ते च पूर्वोक्तजीबाजीवाभ्यां सह नव भवन्ति तत एव नव पदार्थाः । पुण्यपापपदार्थद्वयस्याभेदनयेन कृत्वा पुण्यपापयोर्बन्धपदार्थस्य वा मध्ये अन्तर्भावविवक्षया सप्ततत्त्वानि भण्यन्ते । हे भगवन्, यद्यपि कथंचित्परिणामित्वबलेन भेदप्रधानपर्यायार्थिकनयेन नवपदार्थाः सप्ततत्त्वानि सिद्धानि तथापि तैः किं प्रयोजनम् । तथैवाभेदनयेन पुण्यपापपदार्थद्वयस्यान्तर्भावो जातस्तथैव विशेषाभेद नयविवक्षायामात्रवादिपदार्थानामपि जीवाजीवद्वयमध्येऽन्तर्भावे कृते जीवाजीवौ द्वावेव पदार्थाविति । तत्र परिहारः - हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञान प्रयोजनार्थमात्रवादिपदार्थाः व्याख्येया भवन्ति । तदेव कथयति — उपादेयतत्त्वमक्षयानन्त सुखं, तस्य कारणं मोक्षो, मोक्षस्य कारणं संवर गुड़हलका फूल ) आदिकी उपाधिसे उत्पन्न जो रक्तत्व आदि अन्य पर्याय है उस रूप परिणमता है अर्थात् सर्वथा निर्मल स्फटिक मणिके साथ जब जपापुष्पका योग होता है तब वह उस पुष्पके समान रक्तवर्णका ही धारक हो जाता है। यहाँ स्फटिकमणि यद्यपि उपाधिको ग्रहण करता है तथापि निश्चयसे अपना जो निर्मल स्वभाव है उसको नहीं छोड़ता है। ऐसे ही जीव भी यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध चिदानन्दरूप स्वभावका धारक है तथापि अनादि कर्मबन्ध रूप जो पर्याय है उसके वशसे राग आदि परद्रव्यजनित जो उपाधि पर्याय है उसको ग्रहण करता है । यहाँ यद्यपि जीव परपर्यायके रूपसे परिणमन करता है तथापि निश्चयनयसे जो अपना शुद्ध स्वरूप है उसको नहीं छोड़ता है। इसी प्रकार पुद्गलद्रव्य भी अन्यकी उपाधिसे परिणमनको प्राप्त हो जाता है इस कारण परस्परकी अपेक्षासहित होना यही " कथंचित्परिणामित्व" शब्दका अर्थ है । इस रीति से कथंचित्परिणामित्व सिद्ध होनेपर जीव और पुद्गलके संयोगकी परिणति (परिणाम) से रचे हुए आस्रव आदि सप्त पदार्थ घटित होते हैं । और वे आस्रव आदि सप्त पदार्थ पूर्वोक्त जो जीव और अजीव दो द्रव्य हैं उन सहित नव होते हैं इसलिए नव पदार्थ कहे जाते हैं । तथा इन नव पदार्थों में जा पुण्य और पाप नामक दो पदार्थ हैं इनका पूर्व सप्त पदार्थोंसे अभेद करने से अथवा पुण्य और पाप पदार्थका बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव ( शामिल ) करनेसे सप्त तत्त्व कहे जाते हैं । शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! यद्यपि कथंचित्परिणामित्व माननेके बलसे भेदप्रधान पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा से नव पदार्थ तथा सप्त तत्त्व सिद्ध हो गये तथापि इनसे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? क्योंकि जैसे अभेदनयसे पुण्य पाप इन दो पदार्थोंका प्रथम सप्त पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी प्रकार विशेष अभेदनयकी विवक्षामें आस्रव आदि पदार्थोंका भी जीव और अजीव इन दोनों पदार्थों में अन्तर्भाव कर लेनेसे जीव तथा अजीव ये दो ही पदार्थ सिद्ध हो जायेंगे । अब इस शिष्यकी शंकाका परिहार करते हैं कि हे शिष्य ! कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है इस विषयका ज्ञान होने के प्रयोजनके लिये आस्रव आदि पदार्थ निरूपण करने योग्य होते हैं । अब इसी विषयको कहते हैं कि अविनाशी अनन्त सुख जो है वह उपादेय तत्त्व है । उस अक्षय अनन्त सुखका कारण मोक्ष है और उस मोक्षके कारण संवर और निर्जरा ये दोनों पदार्थ हैं । उन संवर और निर्जराका कारण, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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