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________________ (२) द्वितीयोऽधिकारः अतः परं जीवपुद्गलपर्यायरूपाणामाखवादिसप्तपदार्थानामेकादशगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्रादौ “आसवबंधण" इत्याद्यधिकारसूत्रगाथैका, तदनन्तरमास्रवपदार्थव्याख्यानरूपेण "आसवदि जेण" इत्यादि गाथात्रयं, ततः परं बन्धव्याख्यानकथनेन "वज्झदि कम्म" इति प्रभृतिगाथाद्वयं, ततोऽपि संवरकथनरूपेण "चेदणपरिणामो" इत्यादिसूत्रद्वयं, ततश्च निर्जराप्रतिपादनरूपेण “जहकालेण तवेण य" इति प्रभृतिसूत्रमेकं, तदनन्तरं मोक्षस्वरूपकथनेन "सव्वस्स कम्मणो" इत्यादि सूत्रमेकं, ततश्च पुण्यपापद्वयकथनेन "सुहअसुह" इत्यादि सूत्रमेकं चेत्येकादशगाथाभिः स्थलसप्तकसमुदायेन द्वितीयाधिकारे समुदायपातनिका । __ अत्राह शिष्यः-योकान्तेन जीवाजीवौ परिणामिनौ भवतस्तदा संयोगपर्यायरूप एक एव पदार्थः, यदि पुनरेकान्तेनापरिणामिनौ भवतस्तदा जीवाजीवद्रव्यरूपौ द्वावेव पदार्थों, तत आस्त्रवादि सप्तपदार्थाः कथं घटन्त इति । तत्रोत्तरं-कथंचित्परिणामित्वाद घटन्ते । कथंचित्परिणामित्वमिति कोऽर्थः ? यथा स्फटिकमणिविशेषो यद्यपि स्वभावेन निर्मलस्तथापि जपापुष्पाशुपाधि अब इस चूलिकाके पश्चात् जीव और पद्गल द्रव्यके पर्यायरूप जो आस्रव आदि सप्त पदार्थ हैं उनका एकादश गाथाओंद्वारा इस द्वितीय अधिकारमें व्याख्यान करते हैं। उसमें प्रथम "आसवबन्धण' इत्यादि २८ वीं एक गाथा अधिकार सूत्ररूप है और उसके अनन्तर आस्रवपदार्थके व्याख्यानरूपसे "आसवदि जेण" इत्यादि २९-३०-३१ वी तीन गाथायें हैं। उसके अनन्तर "वज्झदि कम्मं जेण" इत्यादि ३२ वीं और ३३ वीं दो गाथाओंमें बन्धपदार्थका निरूपण है। उसके पश्चात् "चेदणपरिणामो" इत्यादि ३४-३५ की दो गाथाओंमें संवरपदार्थका कथन है। फिर निर्जरापदार्थके प्रतिपादनरूपसे "जह कालेण तवेण य” इत्यादि ३६ वीं एक गाथा है। उसके अनन्तर मोक्षके स्वरूपनिरूपणरूपसे ''सव्वस्स कम्मणो" इत्यादि एक ३७ वीं गाथा है। उसके पश्चात् पुण्य, पाप इन दो पदार्थोंके कथनरूपसे "सुहअसुह' इत्यादि एक ३८ वी गाथा है । ऐसे एकादश गाथाओं द्वारा सप्त स्थलोंके समुदाय सहित द्वितीय अधिकारकी समुदायपातनिका समझनी चाहिये। अब यहाँपर शिष्य प्रश्न करता है कि हे गुरो ! यदि जीव तथा अजीव ये दोनों द्रव्य एकान्तसे ( सर्वथा ) परिणामी ही हैं तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है; और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं तो जीव, अजीव द्रव्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं। इस कारण आस्रव आदि सप्त पदार्थ कैसे सिद्ध होते हैं ? अब इसका उत्तर कहते हैं कि कथंचित् परिणामी होनेसे सप्त पदार्थों का कथन संगत होता है। "कथंचित्परिणामित्व" इसका क्या अर्थ है सो सुनो-जैसे मणियोंक भेद रूप जो स्फटिकमणि है वह यद्यपि स्वभावसे निर्मल है तथापि जपापुष्प (जवा अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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