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________________ द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः परम भिलाषि देवेन्द्रादिवन्द्यम्, “भवणालयचालीसा वितरदेवाण होंति बत्तीसा । कप्पामरचउवीसा चंदो सूरो णरो तिरिओ ॥ १ ॥” इति गाथाकथितलक्षणेन्द्राणां शतेन वन्दितं देवेन्द्रवृन्दवन्द्यम् । “जेण” येन भगवता | कि कृतं ? " णिद्दिट्ठ" निर्दिष्टं कथितं प्रतिपादितम् । किं ? "जीवमजीवं दव्वं" जीवाजीवद्रव्यद्वयम् । तद्यथा, - सहजशुद्ध चैतन्यादिलक्षणं जीवद्रव्यं तद्विलक्षणं पुद्गलादिपञ्चभेदमजीवद्रव्यं च, तथैव चिचमत्कारलक्षणशुद्ध जीवास्तिकायादिपञ्चास्तिकायानां, चिज्ज्योतिःस्वरूप शुद्ध जीवादिसप्ततत्त्वानां निर्दोषपरमात्मादिनवपदार्थानां च स्वरूपमुपदिष्टम् । पुनरपि कथम्भूतेन भगवता ? "जिणवरवसहेण" जितमिथ्यात्वरागादित्वेन एकदेशजिना: असंयतसम्यग्दृष्ट्यादयस्तेषां वराः गणधर देवास्तेषां जिनवराणां वृषभः प्रधानो जिनवर वृषभस्तीर्थकर परमदेवस्तेन जिनवरवृषभेणेति । अत्राध्यात्मशास्त्रे यद्यपि सिद्धपरमेष्ठिनमस्कार उचितस्तथापि व्यवहारनयमाश्रित्य प्रत्युपकारस्मरणार्थमर्हत्परमेष्ठिनमस्कार एव कृतः । तथा चोक्तं - " श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ॥ १ ॥' अत्र गाथापरार्द्धन - "नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नः शास्त्रादौ तेन संस्तुतिः ॥ २ ॥” इति श्लोककथितफलचतुष्टयं समीक्षमाणा ग्रन्थकाराः शास्त्रादौ त्रिधा देवतायै वंद" मोक्षपदको चाहनेवाले जो देवेन्द्रादि हैं उनसे वन्दितको अर्थात् " भवनवासियोंके ४० इन्द्र, व्यन्तरदेवोंके ३२ इन्द्र, कल्पवासीदेवोंके २४ इन्द्र, ज्योतिष्कदेवोंके चन्द्र और सूर्य ये २ इन्द्र, मनुष्योंका १ इन्द्र (चक्रवर्ती) और तिर्यञ्चोंका १ इन्द्र ( सिंहविशेष ) ऐसे सब मिलकर सौ इन्द्र हैं । १ ।” इस गाथामें कहे हुए लक्षणके धारक सौ इन्द्रोंसे वंदितको । जिस भगवान्ने क्या किया है ? " णिद्दिट्ठ" कहा है। किसको कहा है ? "जीवमजीवं दव्वं" जीव और अजीव इस द्रव्यद्वयको कहा है। अर्थात् सहज - शुद्ध चैतन्य आदि लक्षणका धारक जीव द्रव्य है, और इससे विलक्षण ( भिन्न लक्षणका धारक ) पुद्गल १, धर्म २, अधर्म ३, आकाश ४, और काल ५ इन पाँच भेदोंका धारक अजीव द्रव्य है। तथा इसी प्रकार चित् चमत्काररूप लक्षणका धारक जो शुद्ध जीव अस्तिकाय है, उसको आदिमें लेकर पाँच अस्तिकायोंका, परमज्ञानरूप ज्योतिका धारक जो शुद्ध जीवतत्त्व है, उसको आदि में लेकर सात तत्त्वोंका, और दोषरहित जो परमात्मा (जीव ) है, उसको आदि लेकर नौ पदार्थोंका स्वरूप कहा है । फिर कैसे भगवान् ने कहा है, कि - जिणवरवसहेण " मिथ्यात्व और राग आदिको जीतनेसे असंयतसम्यग्दृष्टि आदिक एकदेशी जिन हैं, उनमें जो वर ( श्रेष्ठ ) हैं वे जिनवर अर्थात् गणधरदेव हैं, उन जिनवरों ( गणधरों ) में भी जो प्रधान हों, वे जिनवरवृषभ अर्थात् तीर्थङ्कर परमदेव हैं, उनने कहा है । इस अध्यात्मशास्त्र में यद्यपि सिद्धपरमेष्ठियों को नमस्कार करना योग्य है, तो भी व्यवहारनयका अवलम्बन करके अपने प्रति श्रीजिनेन्द्र के उपकारको स्मरण करनेके लिये अर्हत्परमेष्ठीको ही नमस्कार किया है । सो ही कहा है कि "अर्हत्परमेष्ठी के प्रसाद से कल्याण ( मोक्ष ) मार्गकी सिद्धि होती है । इस कारण उत्तम मुनियोंने शास्त्रकी आदिमें अर्हत्परमेष्ठी के गुणोंकी स्तुति करनेका कथन किया है । १ ।” और यहाँ गाथाके उत्तरार्द्धसे "नास्तिकताका त्याग १, शिष्ट ( उत्तम ) पुरुषों के ५ १. त्रिधा देवता कथ्यते । केन प्रकारेण ? इष्टाधिकृताभिमतभेदेन । इष्टः स्वकीयपूज्यः १ । अधिकृतः -- ग्रन्थस्यादौ प्रकरणस्य वा नमस्करणीयत्वेन विवक्षितः २ । अभिमतः - सर्वेषां लोकानां विवाद विना सम्मतः ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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