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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथम अधिकार
त्रिधा नमस्कारं कुर्वन्ति । इत्यादिमङ्गलव्याख्यानं सूचितम् । मङ्गलमित्युपलक्षणम् । उक्तं च"मंगलणिमित्तहेउं परिमाणं नाम तह य कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्यमायरिओ ॥ ||" "वक्खाणउ" व्याख्यातु । स क: ? "आयरिओ" आचार्य: । कं ? "सत्यं" शास्त्रं "पच्छा" पश्चात् । कि कृत्वा पूर्व ? " वागरिय" व्याकृत्य व्याख्याय । कान् ? "छप्पि " षडप्यधिकारान् । कथंभूतान् ? " मंगलणिमित्तहेउ परिमाणं णाम तह य कत्तारं" मङ्गलं निमित्तं हेतु परिमाणं नामक संज्ञामिति । इति गाथाकथितक्रमेण मंगलाद्यधिकारषट्कमपि ज्ञातव्यम् ॥ गाथापूर्वार्द्धन तु सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि सूचितानि । कथमिति चेत्-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मस्वरूपादिविवरणरूपो वृत्ति-ग्रन्थो व्याख्यानम् । व्याख्येयं तु तत्प्रतिपादकसूत्रम् । इति व्याख्यानव्याख्येयसम्बन्धो विज्ञेयः । यदेव व्याख्येयसूत्रमुक्तं तदेवाभिधानं वाचकं प्रतिपादकं भण्यते, अनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारपरमात्मादिस्वभावोऽभिधेयो वाच्यः प्रतिपाद्यः । इत्यभिधानाभिधेयस्वरूपं बोधव्यम् । प्रयोजनं तु व्यवहारेण षड्द्रव्यादिपरिज्ञानम्, निश्चयेन निजनिरञ्जन शुद्धात्मसंवित्ति - समुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् । परमनिश्चयेन पुनस्तत्फलरूपा केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाविनाभूता निजात्मोपादानसिद्धानन्तसुखावाप्तिरिति । एवं नमस्कारगाथा व्याख्याता ।। १ ॥
आचरणका पालन २, पुण्यकी प्राप्ति ३, और विघ्नकी रहितता ४, इन चार लाभोंके लिये शास्त्रआदिमें श्रीजिनेन्द्रकी स्तुति की जाती है || २ ||" इस प्रकार श्लोकमें कहे हुए जो चार फल हैं, उनको उत्तम रीति से देखते हुए शास्त्रकार अभीष्ट, अधिकृत तथा अभिमत ऐसे तीन प्रकारके देवताके अर्थ मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा नमस्कार करते हैं । इस प्रकार मंगलका व्याख्यान किया । यहाँ मंगल यह उपलक्षण पद है । सो ही कहा है कि, प्रथम ही आचार्य "मंगलाचरण १, शास्त्रके बनानेका निमित्तकारण २, शास्त्रका प्रयोजन ३, शास्त्रका परिमाण ( श्लोकसंख्या ) ४, शास्त्रका नाम ५, और शास्त्रका कर्त्ता ६, इन छह अधिकारोंकी व्याख्या करके फिर शास्त्रका व्याख्यान करते हैं । १ ।" इस गाथा में कहे हुए क्रमसे मंगल आदि ६ अधिकारों को भी जानना चाहिये । और गाथा के पूर्वार्धसे सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजनको सूचित किया है । कैसे सूचित किया है ? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि, निर्मल ज्ञान और दर्शनरूप स्वभावका धारक जो परमात्मा है, उसके स्वरूपको विस्तारसे कहनेवाला जो वृत्ति ( इस द्रव्यसंग्रहकी टीका ) रूप ग्रन्थ है, वह तो व्याख्यान है, और परमात्मस्वरूपका प्रतिपादक जो गाथा सूत्ररूप द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ है वह व्याख्येय ( व्याख्या करने योग्य ) है । इस प्रकार व्याख्यान व्याख्येयरूप तो सम्बन्ध जानना चाहिये । और जो व्याख्या करने योग्य द्रव्यसंग्रहका सूत्र कहा गया है वही अभिधान अर्थात् वाचक ( कहनेवाला ) कहलाता है । और अनन्तज्ञान आदि अनन्तगुणों का आधार ( धारक ) जो परमात्मा आदिका स्वभाव है वह अभिधेय है अर्थात् कथन करने योग्य विषय है। इस प्रकार अभिधानाभिधेयका स्वरूप जानना चाहिये । व्यवहारनकी अपेक्षा 'षद्रव्य आदिका जानना' यह इस ग्रंथका प्रयोजन है । और निश्चयनयसे अपने निर्लेप शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो विकार रहित परमआनंदरूप लक्षणका धारक सुख है, उस सुखरूपी अमृतरसका आस्वादन करनेरूप जो निज आत्माके जाननेरूप ज्ञान है, वह इस ग्रंथ
१. मनोवचनकायैः ।
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