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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः अथ नमस्कारगाथायां प्रथमं यदुक्तं जीवद्रव्यं तत्सम्बन्धे नवाधिकारान् संक्षेपेण सूचयामीति अभिप्रायं मनसि सम्प्रधार्य कथनसूत्रमिति निरूपयति; जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्डगई ।। २ ।। जीवः उपयोगमयः अमूतिः कर्ता स्वदेहपरिमाणः। भोक्ता संसारस्थः सिद्धः सः विस्रसा ऊर्ध्वगतिः ॥२॥ व्याख्या--"जीवो" शुद्धनिश्चयनयेनादिमध्यान्तवजितस्वपरप्रकाशकाविनश्वरनिरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चयप्राणेन यद्यपि जीवति, तथाप्यशुद्धनयेनानादिकर्मबन्धवशादशुद्धद्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीवः। "उवओगमओ" शुद्धद्रव्याथिकनयेन यद्यपि सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनोपयोगमयस्तथाप्यशुद्धनयेन क्षायोपशमिकज्ञानदर्शननिवृत्तत्वात् ज्ञानदर्शनोपयोगमयो भवति । "अमुत्ति" यद्यपि व्यवहारेण मूर्तकर्माधीनत्वेन स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या सहितत्वान्मूर्तस्तथापि परमार्थेनामूर्तातीन्द्रियशुद्धबुद्धकस्वभावत्वादमूर्तः। “कत्ता" यद्यपि भूतार्थनयेन निष्क्रियटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावोऽयं जीवस्तथाप्यभूतार्थनयेन मनोवचनकायव्यापारोत्पादककमसहितत्वेन शुभाशुभकर्मकर्तृत्वात् कर्ता। “सदेहपरिमाणो" यद्यपि निश्चयेन सहजशुद्धलोकाकाशप्रमिता का प्रयोजन है। और परमनिश्चयसे उस आत्मज्ञानके फलरूप-केवलज्ञान आदि अनंतगुणोंके विना न होनेवाली और निज आत्मारूप उपादान कारणसे सिद्ध होनेवाली ऐसी जो अनंतसुखकी प्राप्ति है, वह इस द्रव्यसंग्रह ग्रन्थका प्रयोजन है। इस प्रकार प्रथम जो नमस्कार गाथा है, उसका व्याख्यान किया गया ॥ १॥ ___ अब मैं नमस्कारगाथामें जो पहिले जीवद्रव्यका कथन किया गया है, उस जीवद्रव्यके सम्बन्धमें नौ अधिकारोंको संक्षेपमें सूचित करता हूँ। इस अभिप्रायको मनमें धारण करके आचार्य जीव आदि नौ अधिकारोंको कहनेवाले इस अग्रिम सूत्रका निरूपण करते हैं; ___ गाथाभावार्थ-जो उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीरके बराबर है, भोक्ता है, संसारमें स्थित है, सिद्ध है, और स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है, वह जीव है ।। २ ।। व्याख्यार्थ-"जीवो" यद्यपि यह जीव शुद्धनिश्चयनयसे आदि मध्य और अन्तसे रहित, निज तथा परका प्रकाशक, उपाधिरहित और शुद्ध ऐसा जो चैतन्य ( ज्ञान ) रूप निश्चय प्राण है, उससे जीता है, तथापि अशुद्धनिश्चयनयसे अनादिकर्मबन्धनके वशसे अशुद्ध जो द्रव्यप्राण और भावप्राण हैं, उनसे जीता है इसलिये जीव है। "उवओगमओ" यद्यपि शुद्धद्रव्याथिकनयसे परिपूर्ण तथा निर्मल ऐसे जो ज्ञान और दर्शनरूप दो उपयोग हैं, उन स्वरूप जीव है, तथापि अशुद्धनयसे क्षायोपशमिक ज्ञान और दर्शनसे रचा हुआ है, इस कारण ज्ञानदर्शनोपयोगमय है। "अमुत्ति" यद्यपि जीव व्यवहारनयसे मूर्तकर्मोके आधीन होनेसे स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाली मूत्तिसे सहित होनेके कारण मूर्त है, तथापि निश्चयनयसे अमूर्त इन्द्रियोंके अगोचर, शुद्ध और शुद्धरूप स्वभावका धारक होनेसे अमूर्त है । “कत्ता" यद्यपि यह जीव निश्चयनयसे क्रिया रहित, टंकोत्कीर्ण ( निरुपाधि ), ज्ञायकैकस्वभावका धारक है, तथापि व्यवहारनयसे मन, वचन तथा कायके व्यापारको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंसे सहित होनेके कारण शुभ और अशुभ कर्मोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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