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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार सङ्घयेयप्रदेशस्तथापि व्यवहारेणानादिकम्मंबन्धाधीनत्वेन शरीरनामकर्मोदयजनितोपसंहारविस्ताराधीनत्वात् घटादिभाजनस्थप्रदीपवत् स्वदेहपरिमाणः । " भोत्ता" यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वात्मोत्थसुखामृतभोक्ता, तथाप्यशुद्धनयेन तथाविधसुखामृतभोजनाभावाच्छुभाशुभकर्मजनितसुखदुःखभोक्तृत्वाद्भोक्ता । "संसारत्थो" यद्यपि शुद्धनिश्चयनयेन निःसंसारनित्यानन्दैकस्वभावस्तथाप्यशुद्धनयेन द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपञ्चप्रकारसंसारे तिष्ठतीति संसारस्थ: । "सिद्धो" व्यवहारेण स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धत्वप्रतिपक्षभूतकर्मोदयेन यद्यप्यसिद्धस्तथापि निश्चद्यनयेनानन्तज्ञानानन्तगुणस्वभावत्वात् सिद्धः । “सो" स एवं गुणविशिष्टो जीवः । "विस्ससोड्ढगई" यद्यपि व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोदुर्ध्वाधस्तिर्यग्गतिस्वभावस्तथापि निश्चयेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणावाप्तिलक्षणमोक्षगमनकाले विस्रसा स्वभावेनोद्र्ध्वगतिश्चेति । अत्र पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः, शुद्धाशुद्धनयद्वयविभागेन नयार्थोऽप्युक्तः । इदानीं मतार्थः कथ्यते । जीवसिद्धिश्चार्वाकं प्रति ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणं नैयायिकं प्रति, अमूर्त्तजीवस्थापनं भट्टचार्वाकद्वयं प्रति, कर्मकर्तृत्वस्थापनं सांख्यं प्रति, स्वदेहप्रमितिस्थापनं नैयायिकमीमांसक सांख्यत्रयं प्रति, कर्मभोक्तृत्वव्याख्यानं बौद्धं प्रति, संसारस्थव्याख्यानं सदाशिवं प्रति, सिद्धत्वव्याख्यानं भट्टचार्वाकद्वयं ८ करनेवाला है, इसलिये कर्त्ता है । "सदेहपरिमाणो" यद्यपि जीव निश्चयसे स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध लोकाकाशके समान असंख्यात प्रदेशोंका धारक है, तथापि शरीरनामकर्मके उदयसे उत्पन्न संकोच तथा विस्तार के आधीन होनेसे घट आदि भाजनोंमें स्थित दीपककी तरह निजदेहके परिमाण है । "भोत्ता" यद्यपि जीव शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे रागादि विकल्परूप उपाधियोंसे शून्य है, और अपनी आत्मासे उत्पन्न जो सुखरूपी अमृत है, उसका भोगनेवाला है, तथापि अशुद्धनय से उस प्रकारके सुखरूप अमृतभोजनके अभाव से शुभकर्म से उत्पन्न सुख और अशुभकर्मसे उत्पन्न जो दुःख हैं, उनका भोगनेवाला होनेके कारण भोक्ता है । "संसारत्थो" संसारमें स्थित है अर्थात् संसारी है । यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयनयसे संसाररहित है और नित्य आनंदरूप एक स्वभावका धारक है, तथापि अशुद्धनयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भाव इन भेदोंसे पाँच प्रकारके संसार में रहता है, इस कारण संसारस्थ है । “सिद्धो" सिद्ध है । यद्यपि यह जीव व्यवहारनयसे निज आत्माकी प्राप्तिस्वरूप जो सिद्धत्व है, उसके प्रतिपक्षी कर्मोंके उदयसे असिद्ध है तथापि निश्चयनयसे अनन्तज्ञान और अनन्तगुण स्वभावका धारक होनेसे सिद्ध है । "सो" वह ( इऩ पहले कहे हुए गुणोंका धारक जीव ) "विस्ससोड्ढगई" स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । यद्यपि व्यवहारसे चार गतियोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंके उदयके वशसे ऊँचा, नीचा, तथा तिरछा गमन करनेवाला है, तथापि निश्चयसे केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंकी प्राप्ति स्वरूप जो मोक्ष है, उसमें जानेके समय स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । यहाँपर पदखंडना रूपसे (खंडान्वयकी रीति से) शब्दका अर्थ कहा और शुद्ध तथा अशुद्ध इन दोनों नयोंके विभागसे नयका अर्थ भी कहा है । अब मतका अर्थ कहते हैं । चार्वाकके प्रति जीवकी सिद्धि की गई है, नैयायिक के प्रति जीवका ज्ञान तथा दर्शन उपयोगमय लक्षण है यह कथन है, भट्ट तथा चार्वाकके प्रति जीवका अमूर्त स्थापन है, सांख्यके प्रति आत्मा कर्मका कर्त्ता है ऐसा व्याख्यान है, आत्मा अपने शरीर प्रमाण हैं, यह स्थापन नैयायिक, मीमांसक और सांख्य इन तीनोंके प्रति है, आत्मा कर्मोंका भोक्ता है, यह कथन बौद्धके प्रति है । आत्मा संसारस्थ है, ऐसा व्याख्यान सदाशिवके प्रति है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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