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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः प्रति, ऊर्ध्वगतिस्वभावकथनं माण्डलिकग्रन्थकारं प्रति इति मतार्थो ज्ञातव्यः । आगमार्थः पुनः "अस्त्यात्मानादिबद्धः" इत्यादि प्रसिद्ध एव । शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं, शेषं च हेयम् । इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवबोधव्यः । एवं शब्दनयमतागमभावार्थो यथासम्भवं व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । इति जीवादिनवाधिकारसूचनसूत्रगाथा ॥ २ ॥ अतः परं द्वादशगाथाभिर्नवाधिकारान् विवृणोति तत्रादौ जीवस्वरूपं कथयति ;तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ।। ३ ।। त्रिकाले चतुःप्राणा इन्द्रियं बलं आयुः आनप्राणश्च । व्यवहारात् स जीवः निश्चयनयतः तु चेतना यस्य ॥ ३ ॥ व्याख्या - " तिक्काले चदुपाणा" कालत्रये चत्वारः प्राणा भवन्ति । ते के? "इंदियबल माउआणपाणो य" अतीन्द्रियशुद्ध चैतन्यप्राणात्प्रतिशत्रुपक्षभूतः क्षायोपशमिक इन्द्रियप्राणः, अनन्तवीर्यलक्षणबलप्राणादनन्तैकभागप्रमिता मनोवचनकायबलप्राणाः, अनाद्यनन्त शुद्ध चैतन्यप्राणविपरीततद्विलक्षणः सादिः सान्तश्चायुः प्राणः उच्छ्वासपरावर्तोत्पन्नखेद रहितविशुद्ध चित्प्राणाद्विपरीतसदृश आनपानप्राणः । " ववहारा सो जीवो" इत्थंभूतैश्चतुभिर्द्रव्यभावप्राणैर्यथासंभवं जीवति जीविष्यति आत्मा सिद्ध, है, यह कथन भट्ट और चार्वाकके प्रति है । जीवका ऊर्ध्वगमन करना स्वभाव है, यह कथन इन सब मतोंके ग्रंथकारोंके प्रति है । ऐसा मतका अर्थ जानना चाहिये । और अनादिकालसे कर्मोंसे बँधा हुआ आत्मा है, इत्यादि आगमका अर्थ तो प्रसिद्ध ही है । शुद्धनयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है, वह तो उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) है, और बाकी सब हेय है । इस प्रकार हेयोपादेयरूपसे भावार्थं भी समझना चाहिये । ऐसे शब्द, नय, मत, आगमार्थ, भावार्थ यथासंभव व्याख्यानके समय में सब जगह जानना चाहिये । इस प्रकार जीव आदि नव अधिकारोंको सूचन करनेवाली गाथा समाप्त हुई || २ || अब इसके आगे द्वादश गाथाओंसे नव अधिकारोंका विवरण करते हैं, उनमें प्रथम ही जीवका स्वरूप कहते हैं; गाथाभावार्थ - तीन कालमें इन्द्रिय, बल, आयु और आनपान इन चारों प्राणोंको जो धारण करता है, वह व्यवहारनयसे जीव हैं, और निश्चयनयसे जिसके चेतना है, वही जीव है ॥ ३ ॥ व्याख्यार्थ - "तिक्काले चदुपाणा" तीन कालमें जीवके चार प्राण होते हैं, वे कौनसे ? "इंदियबल माउआणपाणो य" इंद्रियोंके अगोचर जो शुद्ध चैतन्य प्राण है, उसके प्रति शत्रुपक्षभूत क्षायोपशमिक ( क्षयोपशमसे उत्पन्न ) इन्द्रियप्राण है, अनन्तवीर्यरूप जो बलप्राण है, उसके अनन्त भागों में से एक भाग के प्रमाण मनोबल, वचनबल, और कायबलरूप प्राण हैं, अनादि, अनन्त तथा शुद्ध' जो चैतन्य (ज्ञान) प्राण है, उससे विपरीत (उलटा ) एवं विलक्षण सादि (आदिसहित) और अन्तसहित आयुप्राण है, श्वासोच्छ्वासके आवागमन से उत्पन्न खेद से रहित जो शुद्ध चित् प्राण है, उससे विपरीत आनप्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास प्राण हैं । "ववहारा सो जीवो" इस पूर्वोक्त प्रकार रूप ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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