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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रामालायाम्
( प्रथम अधिकार
जीवितपूर्वो वा यो व्यवहारनयात्स जीवः, द्रव्येन्द्रियादिद्रव्यप्राणा अनुपचरितासभूतव्यवहारेण, भावेन्द्रियादिः क्षायोपशमिकभावप्राणाः पुनरशुद्ध निश्चयेन । सत्ताचैतन्यबोधादिः शुद्धभावप्राणाः निश्चयनयेनेति " णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स” शुद्धनिश्चयनयतः सकाशादुपादेयभूता शुद्धचेतना यस्य स जीवः एवं "वच्छरक्खभवसारिच्छ, सग्गणिरयपियराय । चुल्लयहंडिय पुण मडउ णव दिट्ठता जाय ॥ १ ॥” इति दोहककथित नवदृष्टान्तैश्चार्वाकमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थं जीवसिद्धिव्याख्यानेन गाथा गता ॥ ३ ॥
अथ गाथात्रयपर्यन्तं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं कथ्यते । तत्र प्रथमगाथायां मुख्यवृत्त्या दर्शनीपयोगव्याख्यानं करोति । यत्र मुख्यत्वमिति वदति तत्र यथासंभवमन्यदपि विवक्षितं लभ्यत इति ज्ञातव्यम्;
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उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा | चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं ॥ ४ ॥
चार द्रव्यप्राणों और भावप्राणोंसे जो जीता है, जीवेगा वा पहले जीया है, वह व्यवहारनयसे जीव है । अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्येन्द्रिय आदि द्रव्यप्राण हैं, और भावेन्द्रिय आदि क्षायोपशमिक भावप्राण अशुद्ध निश्चयनयसे हैं, तथा सत्ता, चैतन्य बोध आदि शुद्धभावप्राण जो हैं वे निश्चयनयसे हैं । “णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स" शुद्धनिश्चयनय के मत से उपादेयभूत ( ग्रहण करने योग्य) शुद्धचेतना जिसके हो वह जीव माना गया है । इस प्रकार "वच्छ रक्ख भवसारिच्छ सग्गणिरय पियराय । चुल्लय इंडिय पुण मडउ णव दिट्ठता जाय ॥ १ ॥ १. वत्स -- जन्म लेते ही बछड़ा पूर्वजन्म के संस्कारसे, बिना सिखाये अपने आप अपनी माताका स्तनपान करने लगता है । २. अक्षर-अक्षरों का उच्चारण जीव जानकारीके साथ आवश्यकतानुसार करता है, जड़ पदार्थों में शब्दोच्चार की यह विशेषता नहीं होती । ३. भव- आत्मा यदि एक स्थायी पदार्थ न हो तो जन्मग्रहण किसका होगा ? ४. सादृश्य - आहार, परिग्रह, भय, मैथुन, हर्ष, विषाद आदि सब जीवों में एक समान दृष्टिगोचर होते हैं । ५- ६. स्वर्ग-नरक - जीव यदि स्वतन्त्र पदार्थ न हो तो स्वर्ग और नरक में जाना किसके सिद्ध होगा ? ७. पितर - अनेक मनुष्य मरकर भूत आदि हो जाते हैं और फिर अपने पुत्र, पत्नी आदिको कष्ट, सुख आदि देकर अपने पूर्वभवका हाल बताते हैं । ८. चूल्हा हंडी - जीव यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतोंसे बन जाता हो तो दाल बनाते समय चूल्हेपर रखी हुई हंडिया में पाँचों महाभूतों का संसर्ग होने के कारण वहाँ भी जीव उत्पन्न हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है । ९. मृतक - मुर्दा शरीरमें पाँचों भूत पदार्थ पाये जाते हैं, फिर भी जीवके ज्ञानादि नहीं होते। इस प्रकार जीव एक पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध होता है । इस दोहे में कहे हुए नव दृष्टान्तों द्वारा चार्वाकमतानुयायी शिष्यको समझाने के लिये जीवकी सिद्धिके व्याख्यानसे यह गाथा समाप्त हुई || ३॥
अब तीन गाथापर्यन्त ज्ञान तथा दर्शनरूप दो उपयोगोंका वर्णन करते हैं । उनमें भी प्रथम गाथामें मुख्यतासे दर्शनोपयोगका व्याख्यान करते हैं । जहाँ पर यह कथन हो कि अमुक विषयका मुख्यता (प्रधानता ) से वर्णन करते हैं, वहाँपर गौणतासे अन्य विषयका भी यथासम्भव कथन मिलेगा यह जानना चाहिये;
गाथाभावार्थ-दर्शन और ज्ञान इन भेदोंसे उपयोग दो प्रकारका है। उनमें चक्षुर्दर्शन,
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