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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १४७ व्याख्या-'जं सामण्णं गहणं भावाणं" यत् सामान्येन सत्तावलोकनेन ग्रहणं परिच्छेदनं भावानां पदार्थानां; किं कृत्वा ? 'णेव कट्ट मायारं" नैव कृत्वा। कं ? आकारं विकल्पं तदपि कि कृत्वा ? "अविसेसिदूण अट्टे" अविशेष्याविभेद्यार्थान; केन रूपेण ? शुक्लोऽयं, कृष्णोऽयं, दीर्घोऽयं, ह्रस्वोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि "दसणमिदि भण्णए समए" तत्सत्तावलोकं दर्शन मिति भण्यते समये परमागमे । नेदमेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं वक्तव्यम् । कस्मादिति चेत्-तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निविकल्पं यतः । अयमत्र भावः–यदा कोऽपि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति ॥४३॥ अथ छद्मस्थानां ज्ञानं सत्तावलोकनदर्शनपूर्वकं भवति, मुक्तात्मनां युगपदिति प्रतिपादयति; दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि ।। ४४ ।। दर्शनपूर्व ज्ञानं छद्मस्थानां न द्वौ उपयोगौ। युगपत् यस्मात् केवलिनाथे युगपत् तु तौ द्वौ अपि ॥४४॥ व्याख्या-“दंसणपुव्वं गाणं छदमत्थाणं" सत्ताबलोकनदर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति छद्मस्थानां संसारिणां । कस्मात् ‘ण दोण्णि उवउग्गा जुगवं जम्हा" ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं युगपन्न भवति - व्याख्यार्थ-"जं सामण्णं गहणं भावाणं" जो सामान्यसे अर्थात् सत्तावलोकन ( यह है इस प्रकार पदार्थको विद्यमानता देखनेरूप ) से पदार्थोंका जानना है । क्या करके ? "जेव कटु मायारं" विकल्पको न करके, वह भी क्या करके । "अविसेसिदूण अटे" अर्थों को विशेषित अर्थात् यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह दीर्घ ( बड़ा ) है, यह छोटा है, यह घट है और यह पट है, इत्यादि रूपसे भिन्न-भिन्न न करके "दंसणमिदि भण्णए समए" वह परमागममें सत्तावलोकरूप दर्शन कहा जाता है । इसी दर्शनको 'तत्त्वार्थका जो श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है' इस सूत्रमें जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन कहा गया है सो न कहना चाहिये । क्यों नहीं कहना चाहिये ? यह प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि श्रद्धान जो है वह तो विकल्परूप है और यह विकल्परहित है। भावार्थ यहाँपर यह है कि जब कोई भी किसी पदार्थको देखता है तब जबतक वह देखनेवाला विकल्प न करे तबतक तो जो सत्तामात्रका ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूपसे विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं ।। ४३ ॥ अब जो छद्मस्थ हैं उनके जो ज्ञान होता है वह तो सत्तावलोकनरूप दर्शन पहले हो लेता है तव होता है, और जो मुक्तजीव अर्थात् केवलज्ञानी हैं उनके दर्शन और ज्ञान एक ही समयमें होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ-छद्मस्थजीवोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। क्योंकि, छद्मस्थोंके ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक समयमें नहीं होते । तथा जो केवली भगवान हैं उनके ज्ञान तथा दर्शन ये दोनों ही उपयोग एक समयमें होते हैं ।। ४४ ।। व्याख्यार्थ-"दसणपुव्वं गाणं छदमत्थाणं" छद्मस्थ अर्थात् संसारी जीवोंके सत्तावलोकन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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