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________________ १४६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार स्वसंवेदनं रागसंवित्तिविकल्परूपेण सविकल्पमपि शेषानीहितसूक्ष्म विकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते । तथा स्वशुद्धात्मसंवित्तिरूपं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमपि स्वसंवित्याकारैकविकल्पेन सविकल्पमपि बहिर्विषयानीहित सूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते । यत एवेहापूर्वस्वसंवित्याकारान्तर्मुखप्रतिभासेऽपि बहिर्विवषयानीहितसूक्ष्माविकल्पा अपि सन्ति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशकं च सिद्धम् । इदं तु सविकल्पकनिविकल्पकस्य तथैव स्वपरप्रकाशकस्य ज्ञानस्य च व्याख्यानं यद्यागमाध्यात्मतर्कशास्त्रानुसारेण विशेषेण व्याख्यायते तदा महान् विस्तारो भवति । स चाध्यात्मशास्त्रत्वान्न कृत इति । एवं रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गावयविनो द्वितीयावयवभूतस्य ज्ञानस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥ ४२ ॥ अथ निर्विकल्पसत्ताग्राहकं दर्शनं कथयति ; जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं । अविसेसिण अट्ठे दंसणमिदि भण्णए समए ॥ ४३ ॥ Jain Education International यत् सामान्यं ग्रहणं भावानां नैव कृत्वा आकारम् । अविशेषयित्वा अर्थान् दर्शनमिति भण्यते समये ॥ ४३ ॥ चित् निर्विकल्प माना गया हैं । सो ही दिखाते हैं कि - जैसे विषयों में आनन्दरूप जो स्वसंवेदन है वह रागके जानने रूप विकल्पस्वरूप होनेसे सविकल्प है; तो भी बाकीके नहीं चाहे हुए जो सूक्ष्म विकल्प हैं उनका सद्भाव होनेपर भी उन विकल्पोंकी मुख्यता नहीं है; इस कारण से उस ज्ञानको निर्विकल्प भी कहते हैं । इसी प्रकार निज शुद्ध आत्माके जाननेरूप जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान है वह निजसंवित्ति आकाररूप एक विकल्पके होनेसे यद्यपि सविकल्प है, तथापि बाह्य विषयों के नहीं चाहे हुए विकल्पोंका उस ज्ञान में सद्भाव होनेपर भी उनकी उस ज्ञान में मुख्यता नहीं है । इस कारणसे उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं । और जिस ही कारणसे यहाँ अपूर्वं स्वसंवित्ति के आकाररूप अन्तरंग में मुख्य प्रतिभासके होनेपर भी बाह्य विषयवाले नहीं चाहे हुए सूक्ष्म विकल्प भी हैं; उस ही कारण से ज्ञान निज तथा परको प्रकाश करनेवाला भी सिद्ध हुआ । यदि इस सविकल्प निर्विकल्प तथा स्वपरप्रकाशक ज्ञानका व्याख्यान आगमशास्त्र अध्यात्मशास्त्र और तर्कशास्त्र के अनुसार विशेषरूप से किया जावे तो बड़ा विस्तार होता है; और यह द्रव्यसंग्रह अध्यात्मशास्त्र है; इस कारण उस ज्ञानका विशेष वर्णन यहाँ नहीं किया गया है । इस प्रकार रत्नत्रयस्वरूप जो मोक्षमार्गरूप अवयवी है उसके दूसरे अवयवरूप ज्ञानके व्याख्यानद्वारा गाथा समाप्त हुई ।। ४२ ।। अब विकल्परहित होकर सत्ताको ग्रहण करनेवाला जो दर्शन है उसका कथन करते हैं;गाथाभावार्थ - यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूपसे पदार्थोंको भिन्न-भिन्न न करके और विकल्पको न करके जो पदार्थोंका सामान्यसे अर्थात् सत्तावलोकनरूपसे ग्रहण करना है उसको परमागम में दर्शन कहा गया है || ४३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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