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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १४५ स्वशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसनिर्मलजलेन चित्तशुद्धिमकुर्वाणः सन्नयं जीवो बहिरङ्गबकवेषेण यल्लोकरञ्जनां करोति तन्मायाशल्यं भण्यते । निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते । निर्विकारपरमचैतन्यभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकरूपसुखामृतरसास्वादमलभमानोऽयं जीवो दृष्टश्रुतानुभूतभोगेषु यन्नियतं निरन्तरं चित्तं ददाति तन्निदानशल्यमभिधीयते । इत्युक्तलक्षणशल्यत्रयविभावपरिणामप्रभृतिसमस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्परहितेन परमस्वास्थ्यसंवित्तिसमुत्पन्नतात्त्विकपरमानन्दैकलक्षणसुखामृततृप्तेन स्वेनात्मना स्वस्य सम्यग्निविकल्परूपेण वेदनं परिज्ञानमनुभवनमिति निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञानं भण्यते ॥ अत्राह शिष्यः । इत्युक्तप्रकारेण प्राभूतग्रन्थे यनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं भण्यते, तन्न घटते । कस्मादिति चेत् तदुच्यते । सत्तावलोकरूपं चक्षुरादिदर्शनं यथा जैनमते निर्विकल्पं कथ्यते, तथा बौद्धमते ज्ञानं निर्विकल्पक भण्यते । परं किन्तु तन्निविकल्पमपि विकल्पजनकं भवति । जैनमते तु विकल्पस्योत्पादकं भवत्येव न । किन्तु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति । तथैव स्वपरप्रकाशकं चेति । तत्र परिहारः। कथंचित् सविकल्पकं निविकल्पकं च । तथाहि-यथा विषयानन्दरूपं जानता है ऐसा मानकर निज शुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न, निरन्तर आनंदरूप एक लक्षणका धारक जो सुखरूपी अमृतरस वही हुआ जो निर्मल जल उस निर्मल जलसे अपने चित्तकी शुद्धिको नहीं करता हुआ यह जीव बाहरमें बगुले जैसे वेषको धारणकर जो लोकोंको प्रसन्न करता है वह मायाशल्य कहलाता है। और अपना निरंजन दोषरहित जो परमात्मा है वही इस प्रकारकी रुचिरूप जो सम्यक्त्व है उससे विपरीत लक्षणका धारक जो कोई है उसको मिथ्याशल्य कहते हैं। और विकाररहित-परम चैतन्यकी भावनासे उत्पन्न-परम आनंदस्वरूपसुखामृतके रसके स्वादको नहीं प्राप्त हुआ यह जीव जो देखे हुए, सुने हुए तथा अनुभवमें लाये हुए पोगोंमें निरन्तर चित्तको देता है वह निदानशल्य कहलाता है। इस प्रकार उक्त लक्षणके धारक जो माया, मिथ्या और निदानरूप तीन शल्यस्वरूप विभाव परिणाम हैं इनको आदि लेकर जो मंपूर्ण शुभ तथा अशुभरूप संकल्प विकल्प हैं उनसे रहित और परम निजस्वभावके जाननेसे उत्पन्न जो यथार्थ परमानन्दरूप एक लक्षणस्वरूप सुखामृत उसके रसके आस्वादनसे तृप्त हुआ ऐसा जो अपना आत्मा है उसके द्वारा जो 'स्व' निजस्वरूपका 'सं' भले प्रकार अर्थात् निर्विकल्परूपसे वेदन' जानना अर्थात् अनुभवमें करना है वही निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञान-निश्चयज्ञान कहा जाता है ।। यहाँपर शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकारसे प्राभूत ( पाहड़ ) शास्त्रमें जो विकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा गया है वह घटित नहीं होता। क्यों नहीं घटित होता ? ऐसा पूछो तो इसका उत्तर कहते हैं-जैनमतमें जैसे सत्तावलोकरूप अर्थात सत्तामात्रको देखनेरूप जो चक्षदर्शन आदि है उसको निर्विकल्प कहते हैं, उसी प्रकार बौद्धमतमें ज्ञानको निर्विकल्पक कहते हैं । परंतु विशेष यह है कि-यद्यपि बौद्धमतमें ज्ञान निर्विकल्प है; तथापि विकल्पको उत्पन्न करनेवाला होता है । और जैनमतमें तो ज्ञान विकल्पको उत्पन्न करनेवाला है ही नहीं; किन्तु स्वरूप ( स्वभाव ) से ही विकल्पसहित है । और इसी प्रकार निजका तथा परका प्रकाश करनेवाला है। अव इस शंकाको दूर करनेके लिये कहते हैं कि-जैनमतमें ज्ञानको कथंचित् सविकल्प और कथं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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