________________
१४४
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार चेति संक्षेपेण द्वादशाङ्गव्याख्यानम् । अङ्गबाह्यं पुनः सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवं वन्दना, प्रतिक्रमणं, वैनयिकं, कृतिकर्म, दशवैकालिकम्, उत्तराध्ययनं कल्पव्यवहारः, कल्पाकल्पं महाकल्पं, पुण्डरीकं, महापुण्डरीकं, अशीतिकं चेति चतुर्दशप्रकीर्णकसंज्ञं बोद्धव्यमिति ।
अथवा वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थङ्करभरतादिद्वादशचक्रवत्तिविजयादिनव बलदेवत्रिपिष्टादिनववासुदेवसुग्रीवादिनवप्रतिवासुदेवसम्बन्धि त्रिषष्टिपुरुषपुराणभेदभिन्नः प्रथमानुयोगो भण्यते । उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनादौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते । त्रिलोकसारे जिनान्तरलोक विभागादिग्रन्थव्याख्यानं करणानुयोगो विज्ञेयः । प्राभृततत्त्वार्थसिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्धजीवादिषद्रव्यादीनां मुख्यवृत्त्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानुयोगो भण्यते । इत्युक्तलक्षणानुयोगचतुष्टयरूपेण चतुविधं श्रुतज्ञानं ज्ञातव्यम् । अनुयोगोऽधिकारः परिच्छेदः प्रकरणभित्याद्ये कोऽर्थः । अथवा षड्द्रव्यपञ्चास्तिकाय सप्ततत्त्वनवपदार्थेषु ' मध्ये ' निश्चयनये स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं, स्वशुद्धजीवास्तिकायो, निजशुद्धात्मतत्त्वं निजशुद्धात्मपदार्थ उपादेयः । शेषं च यमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति ॥
इदानीं तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं कथ्यते । तथाहि - रागात् परकलत्रादिवाञ्छारूपं द्वेषात् परवधबन्धच्छेदादिवाञ्छारूपं च मदीयापध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा
और शाकिन्यादिरूप परावर्त्तन चूलिका ५, इन भेदोंसे चूलिका पाँच प्रकारकी है। इस प्रकार संक्षेपसे द्वादशांगका व्याख्यान है । और जो अंगबाह्य श्रुतज्ञान है वह सामायिक १, चतुर्विंशतिस्तव २, वंदना ३, प्रतिक्रमण ४, वैनयिक ५, कृतिकर्म ६, दशवेकालिक ७ अनुत्तराध्ययन ८, कल्पव्यवहार ९, कल्पाकल्प १०, महाकल्प ११, पुंडरीक १२, महापुंडरीक १३, और अशीतिक १४, इन प्रकीर्णकरूप भेदोंसे चौदह प्रकारका जानना चाहिये ||
अथवा वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरोंका, भरत आदि बारह चक्रवर्तियोंका, विजय आदि नौ बलदेवोंका, त्रिपिष्ट आदि नौ नारायणोंका, और सुग्रीव आदि नौ प्रतिनारायणोंका संबंध रखनेवाले जो तिरसठ शलाकापुरुषोंके पुराण हैं उनरूप भेदोंका धारक जो है वह प्रथमानुयोग कहलाता है । उपासकाध्ययन आदिमें श्रावकका धर्म, और मूलाचार भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में मुनिका धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है वह दूसरा चरणानुयोग कहा जाता है । त्रिलोकसार, जिनान्तर और लोकविभाग आदि ग्रन्थोंका व्याख्यान जिसमें हो उसको करणानुयोग जानना चाहिये । समयसार आदि प्राभृत ( पाहुड़ ) और तत्त्वार्थसूत्र, तथा सिद्धान्तआदि शास्त्रोंमें मुख्यता से शुद्ध - अशुद्धजीव आदि छह द्रव्य आदिका जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है । इस प्रकार उक्त लक्षणके धारक जो चार अनुयोग हैं उनरूप चार प्रकारका श्रुतज्ञान जानने योग्य है । अनुयोग, अधिकार, परिच्छेद और प्रकरण इत्यादि शब्दोंका अर्थ एक ही है । अथवा षट् द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थ जो हैं उनमें निश्चयनयसे अपना शुद्ध आत्मद्रव्य, अपना शुद्ध जीव अस्तिकाय, निज शुद्ध आत्मतत्त्व तथा निजशुद्ध जो आत्मपदार्थं है वह तो केवल उपादेय है । और इसके सिवाय परके शुद्ध अशुद्ध जीवादि सभी हेय हैं। इस प्रकार संक्षेपसे हेय तथा उपादेय भेदोंसे व्यवहार ज्ञान जो है वह दो प्रकारका है ॥
अब जो विकल्परूप व्यवहारज्ञान है उसीसे साध्य ( सिद्ध होने योग्य ) जो निश्चयज्ञान है उसका कथन करते हैं । जैसे- रागके उदयसे परस्त्री आदिमें वांछारूप, और द्वेषसे अन्य जीवोंके मारने, बांधने अथवा छेदने रूप जो मेरा दुर्ध्यान ( बुरा परिणाम ) है उसको कोई भी नहीं
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International