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१४८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
तृतीय अधिकार यस्मात्, "केवलिणाहे जुगर्व तु ते दोऽवि" केवलिनाथे तु युगपत्ती ज्ञानदर्शनोपयोगी द्वौ भवत इति ।
अथ विस्तरः। चक्षुरादीन्द्रियाणां स्वकीयस्वकीयक्षयोपशमानुसारेण तद्योग्यदेशस्थितस्वरूपादिविषयाणां ग्रहणमेव सन्निपातः सम्बन्धः सन्निकर्षो भण्यते । न च नैयायिकमतवच्चक्षुरादीन्द्रियाणां स्वरूपादिस्वकीयस्वकीयविषयपाश्र्वे गमन इति सन्निकर्षो वक्तव्यः। स एव सम्बन्धो लक्षणं यस्य तल्लक्षणं यन्निविकल्पं सत्तावलोकनदर्शनं तत्पूर्व शुक्लमिदमित्याद्यवग्रहादिविकल्परूपमिन्द्रियानिन्द्रियजनितं मतिज्ञानं भवति । इत्युक्तलक्षणमतिज्ञानपूर्वकं तु धूमादग्निविज्ञानवदर्थादर्थान्तरग्रहणरूपं लिङ्गज, तथैव घटादिशब्दश्रवणरूपं शब्दजं चेति द्विविधं श्रुतज्ञानं भवति । अथावधिज्ञानं पुनरवधिदर्शनपूर्वकमिति । ईहामतिज्ञानपूर्वकं तु मनःपर्ययज्ञानं भवति ।
अत्र श्रुतज्ञानमनःपर्ययज्ञानजनकं यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम, तदपि दर्शनपूर्वकत्वादुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमनःपर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्य
दर्शन पहले हो लेता है तब ज्ञान होता है । क्योंकि; "ण दोण्णि उवउग्गा जुवगं जम्हा" छद्मस्थोंके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों एक समयमें नहीं होते इसलिये; "केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि'' और केवली भगवान्में वे दोनों ज्ञान दर्शन उपयोग एक ही समय में होते हैं ।
अब विस्तारसे वर्णन करते हैं-चक्षु आदि इन्द्रियोंके अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार अपने योग्य देश में विद्यमान जो निजरूए आदि विषय हैं उनका ग्रहण करना है उसीको सन्निपात, संबन्ध अथवा सन्निकर्ष कहते हैं। और नैयायिक मतके समान चक्षु आदि इन्द्रियोंका जो अपने अपने स्वरूप आदि विषयोंके पास जाना है; उसको सन्निकर्ष न कहना चाहिये। भावार्थ-नेत्र आदि इन्द्रियोंद्वारा जो रूप आदिका ग्रहण किया जाता है वही सन्निकर्ष है, और नैयायिकमतमें जो नेत्र आदि इन्द्रियोंका अपने रूप आदि विषयोंके पास गमन करने रूप सन्निकर्ष माना है वह नहीं । वह सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष ही है लक्षण जिसका; ऐसा जो निर्विकल्पक-सत्तावलोकन दर्शन उसके होनेके पीछे "यह शुक्ल ( सफेद ) है" इत्यादि अवग्रह आदि विकल्पोंरूप-पाँचों इन्द्रियों तथा अनिन्द्रिय मनसे उत्पन्न मतिज्ञान होता है । और इस पूर्वोक्त लक्षणका धारक मतिज्ञान पहले हो लेता है तब धूम ( धुआं ) से जैसे अग्निका ज्ञान हो जाता है इसी प्रकार एक पदार्थसे दूसरे पदार्थको ग्रहण करनेरूप लिंगज ( चिह्नसे उत्पन्न हुआ ) तथा इसी प्रकार घट आदि शब्दोंके सुननेरूप शब्दज ( शब्दसे उत्पन्न हुआ ), ऐसे दो प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । भावार्थश्रुतज्ञान दो प्रकारका है एक तो लिंगज और दूसरा शब्दज; उनमें एक पदार्थको जानकर उसके जरियेसे जो दूसरे पदार्थका जान लेना है वह तो लिंगज श्रुतज्ञान है और शब्दोंके सुननेसे जो ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है । और अवधि दर्शन पहले हो लेता है तब अवधिज्ञान होता है । और जो मनःपर्ययज्ञान है वह ईहानामक मतिज्ञानपूर्वक होता है।
यहाँपर श्रुतज्ञानको उत्पन्न करनेवाला अवग्रह, और मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला हा, आदिकप जो मतिज्ञान कहा है अर्थात् श्रुतज्ञानको उत्पन्न करनेवाला अवग्रहरूप मतिज्ञान और मन पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला ईहारूप मतिज्ञान कहा गया है; वह मतिज्ञान भी दर्शन पहले हो लेता है तभी होता है । इसलिये मतिज्ञान भी उपचारसे दर्शन कहलाता है । इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन दोनोंको भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिये । इस पूर्वोक्त प्रकारसे
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