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________________ मक्ष मार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १४९ मिति । एवं छद्मस्थानां सावरणक्षयोपशमिकज्ञानसहितत्वात् दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति । केवलिनां तु भगवतां निर्विकारस्वसंवेदनसमुत्पन्न निरावरणक्षायिकज्ञानसहितत्वान्निर्मघादित्ये युगपदातपप्रकाशवदर्शनं ज्ञानं च युगपदेवेति विज्ञेयम् । छद्मस्था इति कोऽर्थः ? छद्मशब्देन ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति छमस्थाः । एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं व्याख्यातम् । अत ऊर्ध्व सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि-उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तदर्शनं भण्यते। तदनन्तरं यदबहिविषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तद्ज्ञानमिति वार्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थ चित्ते जाते सति घटविकल्पाव्यावर्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति । तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिविषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद ज्ञानं भण्यते । अत्राह शिष्यः-यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते; तहि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः । नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं छद्मस्थ जीव आवरणसहित क्षयोपशमिक ज्ञानसहित हैं इस कारण छद्मस्थोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। और केवली भगवान् विकाररहित और अपने संवेदन ( जानने ) से उत्पन्न ऐसा जो क्षायिक ज्ञान है उससे सहित हैं; इसलिये केवली भगवानोंके जैसे बादलके आवरणरहित सूर्यके एक ही समयमें आतप और प्रकाश होते हैं; उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान ये दोनों एक ही समयमें होते हैं ऐसा जानना चाहिये । प्रश्न-छद्मस्थ ऐसा जो गाथामें कहा गया है इसका क्या अर्थ है? उत्तर-छद्म इस शब्दसे ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दोनों कहे जाते हैं, उस छद्म में जो रहे वे छद्मस्थ हैं । इस प्रकार तर्क ( न्याय ) के अभिप्रायसे सत्तावलोकन दर्शनका व्याख्यान किया गया। अव इसके आगे सिद्धान्तके अभिप्रायसे कहते हैं । सो ही दिखाते हैं, आगेके कालमें होनेवाला जो ज्ञान है उसकी उत्पत्तिका निमित्त जो प्रयत्न उस स्वरूप जो निज आत्माका परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन ( देखना ) वह दर्शन कहलाता है, और उसके पीछे जो बाह्य विषयमें विकल्परूपसे पदार्थका ग्रहण है वह ज्ञान है; यह वात्तिक है। जैसे कोई पुरुष पहले घटके विषयका विकल्प करता हुआ बैठा है फिर उसी पुरुषका चित्त जब पटके जाननेके लिये होता है, तब वह पुरुष घटके विकल्पसे हठकर जो स्वरूपमें प्रयत्न अर्थात् अवलोकन ( परिच्छेदन ) करता है; उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनंतर यह पट है; इस प्रकारसे निश्चयरूप जो बाह्य विषयरूपसे पदार्थके ग्रहणस्वरूप विकल्पको करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है । यहाँपर शिष्य कहता है कि हे गुरो ! यदि आप आत्मा (अपने) को ग्रहण करनेवाला जो है उसको दर्शन, और जो पर पदार्थको ग्रहण करनेवाला है उसको ज्ञान कहते हैं तो नैयायिकोंके मतमें जैसे ज्ञान आत्माको नहीं जानता है; वैसे ही जैनमतमें भी ज्ञान आत्माको नहीं जानता है; ऐसा दूषण प्राप्त होता है । अब इस शिष्यको शंकाको आचार्य दूर करते हैं कि नंयायिकमतमें ज्ञान जुदा और दर्शन जुदा इस प्रकारसे दो गुण नहीं हैं अर्थात् ज्ञान और दर्शन ये दो जुदे-जुदे गुण नहीं हैं। इस कारण उन नैयायिकोंके आत्माको जाननेके अभावरूप दूषण प्राप्त होता है अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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