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________________ १५० श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार प्राप्नोति । जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत् यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहकः, पचतीति पाचको विषयभेदेन द्विधा भिद्यते । तथैवाभेदनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते । कि च यदि सामान्य ग्राहकं दर्शनं विशेषग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तदा ज्ञानस्य प्रमाणत्वं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत् वस्तुग्राहकं प्रमाणं; वस्तु च सामान्यविशेषात्मकं; ज्ञानेन पुनर्वस्त्वेकदेशो विशेष एव गृहीतो; न च वस्तु । सिद्धान्तेन पुनर्निश्चयेन गुणगुणिनोरभिन्नत्वात् संशयविमोहविभ्रमरहितवस्तुज्ञानस्वरूपात्मैव प्रमाणम् । स च प्रदीपवत् स्वपरगतं सामान्यं विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । अथ मतं - यदि दर्शनं बहिविषये न प्रवर्त्तते तदान्धवत् सर्वजनानामन्धत्वं प्राप्नोतीति । नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्व परिच्छिनत्तीति । अयं तु विशेष: आत्माका ज्ञान न होने रूप दोष होता है, और जैनमत में आत्मा ज्ञान गुणसे तो पर पदार्थको जानता है तथा दर्शन गुणसे आत्माको जानता है इस कारण जैनमत में आत्माके जाननेका अभावरूप जो दूषण है वह प्राप्त नहीं होता अर्थात् जैनमतमें आत्माका जानना सिद्ध ही है । यह दूषण क्यों नहीं होता है ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि जैसे एक भी अग्नि दहन गुणसे जलाता है इस हेतुसे दाहक कहलाता है, और पाचनरूप गुणसे पकाता है इस कारण पाचक कहलाता है । इस प्रकार विषयके भेद से दाहक - पाचक रूप दो प्रकार भेदको प्राप्त होता है अर्थात् एक ही अग्नि दाहक और पाचकभेदसे दो प्रकारका है । उसी प्रकार अभेदनयसे एक भी चैतन्य भेदनयकी विवक्षामें जब आत्माको ग्रहण करनेवाले रूपसे प्रवृत्त हुआ तब तो उसका 'दर्शन' यह नाम हुआ और फिर जब पर पदार्थको ग्रहण करनेरूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्यका 'ज्ञान' यह नाम हुआ इस प्रकार विषयके भेदसे चैतन्य दो प्रकारसे भेदको प्राप्त होता है अर्थात् एक ही चैतन्य दर्शन और ज्ञानरूप भेदसे दो प्रकारका होता है । और विशेष वार्ता यह है कि, यदि सामान्यके ग्रहण करनेवालेको दर्शन और विशेषके ग्रहण करनेवालेको ज्ञान कहा जावे तो ज्ञानके प्रमाणताकी प्राप्ति नहीं होती है | ज्ञानके प्रमाणत्व क्यों नहीं होता ? यह शंका करो तो समाधान यह है कि, जो वस्तुको ग्रहण करनेवाला है उसको प्रमाण कहते हैं । और वस्तु सामान्य तथा विशेष इन दोनों स्वरूप है, और ज्ञानने वस्तुका एक देश जो विशेष है वह ही ग्रहण किया न कि संपूर्ण वस्तु और सिद्धान्त से निश्चयनयकी विवक्षामें गुण और गुणीके भेद नहीं है; इस कारण संशय, विमोह ( अनध्यवसाय ) और विभ्रम ( विपर्यय ) इन तीनोंसे रहित जो वस्तुका ज्ञान है उस ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । क्योंकि, ज्ञान आत्माका गुण है और आत्मा ज्ञानगुणको धारण करता है इसलिये गुणी है, गुण और गुणीके निश्चयसे अभेद है । और वह प्रमाण जैसे प्रदीप अपने और परका प्रकाशक है, उसी प्रकार अपने में प्राप्त सामान्यको और पर पदार्थ में प्राप्त विशेषको जानता है । इस कारण अभेदसे आत्मा के ही प्रमाणत्व है । अब ऐसा कहो कि, यदि दर्शन बाह्य विषय में नहीं प्रवर्त्तता है तो अंधेकी तरह सब मनुष्यों अंधेपनकी प्राप्ति होती है । तो समाधान यह है कि, ऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि, यद्यपि बाह्य विषयमें दर्शनका अभाव है; तथापि आत्मा ज्ञानद्वारा विशेष रूपसे सब पदाथोंको जानता है । और अधिक वार्ता यह है कि जब दर्शनसे आत्माका ग्रहण होता है तब आत्मा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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