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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १५१ दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति । अथोक्तं भवता यद्यात्मग्राहक दर्शनं भण्यते, तहि जं सामण्णं गहणं भावाणं तद्दर्शनमिति गाथार्थः कथं घटते ? तत्रोत्तरं सामान्यग्रहणमात्मग्रहणं तद्दर्शनं । कस्मादिति चेत्-आत्मा वस्तुपरिच्छित्ति कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामोति विशेषपक्षपातं न करोति; किन्तु सामान्येन वस्त परिच्छिनत्ति । तेन कारणेन सामान्यशब्देनात्मा भण्यत इति गाथार्थः। किंबहुना ? यदि कोऽपि तर्कार्थ सिद्धान्तार्थं च ज्ञात्वैकान्तदुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटत इति । कथमिति चेत्-तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति । तदा तेषामात्मग्राहक दर्शनमिति कथिते सति ते न जानन्ति । पश्चादाचार्यैस्तेषां प्रतीत्यर्थ स्थलव्याख्यानन बहिविषये यत सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति । सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या । तत्र सूक्ष्मव्याख्याने क्रियमाणे सत्याचार्येरात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति ।। व्याप्त जो ज्ञान है वह भी दर्शन करके ग्रहण किया जाता है; और जब दर्शनने ज्ञानको ग्रहण किया तो ज्ञानका विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी ग्रहण किया। अब कदाचित् यह कहो कि, जो आप आत्माको ग्रहण करनेवालेको दर्शन कहते हो तो "जो पदार्थोंका सामान्य ग्रहण है वह दर्शन कहलाता है" यह जो गाथाका अर्थ है वह आपके कथनमें कैसे घटता है ? तो इसमें यह उत्तर है कि, वहाँपर सामान्य ग्रहण इस शब्दका आत्माका ग्रहण करनेरूप अर्थ है और वह आत्मग्रहण ही दर्शन है । ऐसा अर्थ क्यों है ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि, वस्तुका ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह 'मैं इसको जानता हूँ, इसको नहीं जानता हूँ,' इस प्रकारसे जो विशेष पक्षपात हैं उसको नहीं करता है। किंतु सामान्यरूपसे वस्तु ( पदार्थ ) को जानता है। इस कारण सामान्य इस शब्दसे आत्मा कहा जाता है । यह गाथाका अर्थ है। बहुत कहनेसे क्या ? यदि कोई भी तर्क ( न्याय ) के और सिद्धान्तके अर्थको जानकर एकान्तरूप जो दुराग्रह ( बुरा हठ ) हैं उसका त्याग करके, नयोके विभागसे मध्यस्थता धारण करके, व्याख्यान करता है तब तो सामान्य और विशेष ये दोनों ही सिद्ध होते हैं। कैसे सिद्ध होते हैं ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि, तर्क ( न्याय ) में मुख्यतासे परसमय अर्थात् अन्यमतका व्याख्यान है । इसलिये उसमें यदि कोई अन्यमतावलम्बी पूछे कि, जैनमतमें जीवके दर्शन और ज्ञान ये जो दो गुण कहे जाते हैं वे कैसे सिद्ध होते हैं ? तब इसके उत्तरमें यदि उन अन्यमतियोंको यह कहे कि; जो आत्माको ग्रहण करनेवाला है उसको दर्शन कहते हैं; तो ऐसा कहनेपर वे अन्यमती नहीं समझते हैं। तब आचार्योंने उनके प्रतीति होनेके लिये विस्ताररूप व्याख्यानसे जो बाह्यविषयमें सामान्य जानना है उसकी तो 'दर्शन' ऐसी संज्ञा ( नाम ) स्थापित की; और जो 'यह शुक्ल ( सफेद ) है' इत्यादि रूपसे बाह्य में विशेषका जानना है, उसकी 'ज्ञान' यह संज्ञा ठहराई, इसलिये दोष नहीं है । और सिद्धान्तमें मुख्यतासे निजसमय ( जैनमत ) का व्याख्यान है इसलिये सिद्धान्तमें जब सूक्ष्म व्याख्यान किया गया तब आचार्योंने जो आत्माका ग्राहक है उसको दर्शन कहा । इस कारण इस कथनमें भी दं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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