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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार
अत्राह शिष्यः - सत्तावलोकनदर्शनस्य ज्ञानेन सह भेदो ज्ञातस्तावदिदानों यत्तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं सम्यग्ज्ञानं तयोर्विशेषो न ज्ञायते । कस्मादिति चेत् -- सम्यग्दर्शने पदार्थनिश्चयोऽस्ति तथैव सम्यग्ज्ञाने च को विशेष इति । अत्र परिहारः । अर्थग्रहणपरिच्छि त्तिरूपः क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भण्यते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति । अविकल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्वमिति । कस्मादिति चेत् - अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिरधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेषः सम्यक्त्वं भण्यते यतः कारणात् ।
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यदि भेदो नास्ति तहि कथमावरणद्वयमिति चेत्-तत्रोत्तरम् । येन कर्मणार्थपरिच्छि तिरूपः क्षयोपशमः प्रच्छाद्यते तस्य ज्ञानावरणसंज्ञा, तस्यैव क्षयोपशमविशेषस्य यत् कर्म पूर्वोक्तलक्षणं विपरीताभिनिवेशमुत्पादयति तस्य मिथ्यात्वसंज्ञेति भेदनयेनावरणभेदः । निश्चयनयेन पुनरभेदविवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्येकमेव विज्ञातव्यम् । एवं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवतीति व्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥ ४४ ॥
अब यहाँ शिष्य कहता है कि हे गुरो ! सत्ताका अवलोकन करनेवाला जो दर्शन है उसका तो ज्ञानके साथ भेद जाना । अब " जो तत्त्वार्थका श्रद्धान करनेरूप सम्यग्दर्शन और पदार्थका विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है" इन दोनोंमें भेद नहीं जाना जाता । क्यों नहीं जाना जाता ? यह पूछे तो उत्तर यह है कि, जो पदार्थका निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है । इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें क्या भेद है अर्थात् कुछ भी नहीं । अब इस शिष्यकी शंकाका आचार्य समाधान करते हैं कि, पदार्थ के ग्रहण करनेमें जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह ज्ञान कहलाता है । और उस ज्ञानमें ही भेदनयसे जो वीतराग सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रद्वारा कहे हुए शुद्ध आत्मा आदि तत्त्व हैं उनमें यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है, इस प्रकारका जो निश्चय है वह सम्यक्त्व है | और अभेदनयसे अर्थात् अभेदरूपसे तो जो ही सम्यग्ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है । ऐसा किस
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कारणसे है ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि, तत्त्व नहीं है उसमें तत्त्वकी बुद्धि करना, देव नहीं है उसमें देवकी बुद्धि करना और अधर्ममें धर्मकी बुद्धि करना इत्यादि रूपसे जो विपरीत अभिनिवेश ( उलटा आग्रह ) है; उस विपरीताभिनिवेशसे रहित जो ज्ञान है; उसीका जो सम्यग् इस विशेषणसे कहे जानेवाला अवस्थाविशेष है वह सम्यक्त्व कहलाता है । यही इस अर्थ के करने में हेतु है ।
जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें भेद नहीं है तो आठ कर्मोंमें दर्शनावरण और ज्ञानावरण ये दो आवरण कैसे कहे गये है ? यह शंका करो तो यहाँ समाधानरूप उत्तर यह है कि, जिस कर्मसे पदार्थके जाननेरूप क्षयोपशम ढका जाता है उसकी तो 'ज्ञानावरण' यह संज्ञा है । और उस ज्ञानावरणके क्षयोपशमविशेष के जो कर्म पहले कहे हुए लक्षणवाले विपरीत अभिनिवेशको उत्पन्न करता है उसकी मिथ्यात्व यह संज्ञा है । इस कारण भेदनयसे आवरणका भेद है । और अभेदकी विवक्षा में कर्मत्व के प्रति जो दो आवरण हैं उन दोनोंको एक ही जानना चाहिये । इस प्रकार दर्शन पहले हो लेता है तब ज्ञान होता है; ऐसे व्याख्यान करनेवाली जो गाथा है वह
समाप्त हुई ||४४||
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