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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः -- अथ सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकं रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग तृतीयावयवभूतं स्वशुद्धात्मानुभूतिरूपशुद्धोपयोगलक्षणवीतरागचारित्रस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति ;असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ।। ४५ ।। अशुभात् विनिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रं । व्रत समिति गुप्तिरूपं व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ॥४५॥ १५३ व्याख्या - अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं तावत्कथ्यते । तद्यथामिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षये सति, अध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामे वा सति शुद्धात्मभावनोत्पन्न निर्विकारवास्तवसुखामृतमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धिः सम्यग्दर्शनशुद्धः स चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते । यश्च प्रत्याख्यानावरणसंज्ञिद्वितीयकषायक्षयोपशमे जाते सति पृथिव्यादिपञ्चस्थावरवधे प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या सवधे निवृत्तः स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भण्यते । तस्यैकादशभेदाः कथ्यन्ते । तथाहि - सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुत्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहितः सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्घादिभिनिष्प्रयोजनजीवघातादौ अब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके पीछे होनेवाला रत्नत्रयस्वरूप जो मोक्षमार्ग है; उसका तीसरा अवयवरूप और निजशुद्ध आत्माके अनुभवस्वरूप जो शुद्धोपयोगरूप लक्षणका धारक वीतरागचारित्र है, उसको परंपरासे साधनेवाला जो सरागचारित्र है; उसका प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ--जो अशुभ ( बुरे ) कार्यसे दूर होना और शुभ कार्य में प्रवृत्त होना अर्थात् लगना है उसको चारित्र जानना चाहिये । श्रीजिनेन्द्रदेवने व्यवहारनयसे उस चारित्रको ५ व्रत, ५ समिति और ३ गुप्तिस्वरूप कहा है ॥ ४५ ॥ व्याख्यार्थ - अब प्रथम ही इसी सरागचारित्रका अवयवरूप जो देशचारित्र है उसका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है - मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होनेपर अथवा अध्यात्मभाषाके अनुसार निज शुद्धआत्माके सन्मुख परिणाम होने पर जो जीव शुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न — विकाररहित - यथार्थं सुखरूपी अमृतको ग्रहण करने योग्य करके, संसार शरीर और भोगों में हेयबुद्धि है अर्थात् संसार, शरीर और भोग ये सब त्यागने योग्य हैं ऐसा समझता है, और सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है; उसको चतुर्थ गुणस्थान में रहनेवाला व्रतरहित दर्शनिक कहते हैं । और जो प्रत्याख्यानावरण नामक दूसरे क्रोधादि कषायों का क्षयोपशम होने पर पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावरोंके वध में प्रवृत्त हो तो भी अपनी शक्ति के अनुसार त्रसजीवोंके वधसे रहित होता है अर्थात् यथाशक्ति बेइन्द्रिय आदि त्रसजीवों की हिंसा नहीं करता है उसको पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहते हैं । अब उस पंचम गुणस्थानवर्त्ती श्रावकके ग्यारह भेदों को कहते है । वे इस प्रकार हैंपहले सम्यग्दर्शनको धारण करके मद्य (मदिरा), मांस और सहत (मधु) इन तीनोंके और उदुम्बर आदि पाँच फलोंके त्यागरूप जो आठ मूलगुण हैं उनसहित हुआ जो जोव युद्ध आदिमें प्रवृत्त होने १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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