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________________ १५४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार निवृत्तः प्रथमो दर्शनिकश्रावको भण्यते । स एव सर्वथा त्रसवधे निवृत्तः सन् पञ्चाणुव्रतत्रयगुणव्रतशिक्षावतचतुष्टयसहितो द्वितीयवतिकसंज्ञो भवति । स एव त्रिकालसामायिके प्रवृत्तः तृतीयः, प्रोषधोपवासे प्रवृत्तश्चतुर्थः, सचित्तपरिहारेण पञ्चमः, दिवा ब्रह्मचर्येण षष्ठः, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तमः, आरम्भादिसमस्तव्यापारनिवृत्तोऽष्टमः, वस्त्रप्रावरणं विहायान्यसर्वपरिग्रहनिवृत्तो नवमः, गृहव्यापारादिसर्वसावद्यानुमतनिवृत्तो दशमः, उद्दिष्टाहारनिवृत्तः एकादशम इति । एतेष्वेकादशश्रावकेषु मध्ये प्रथमषट्कं तारतम्येन जघन्यम्, ततश्च त्रयं मध्यमम्, ततो द्वयमुत्तममिति संक्षेपेण दर्शनिकश्रावकायंकादशभदाःज्ञातव्याः। 'अथैकदेशचारित्रव्याख्यानानन्तरं सकलचारित्रमुपदिशति। "असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं" अशुभानिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिश्चापि जानीहि चारित्रम् । तच्च कथम्भूतं"वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं" व्रतसमितिगुप्तिरूपं व्यवहारनयाज्जिनरुक्तमिति । तथाहि-प्रत्याख्यानावरणसंज्ञतृतीयकषायक्षयोपशमे सति "विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो। १।" इति गाथाकथित पर भी शिकार आदिसे प्रयोजनके विना जीवघात नहीं करता है उसको पहला दर्शनिक श्रावक कहते हैं। और वही प्रथम दर्शनिक श्रावक जब त्रसजीवकी हिंसासे सर्वथा रहित होकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंसे सहित होता है तब दूसरा व्रतिक ( व्रती ) इस नामका धारक होता है। वही जब त्रिकाल सामायिकमें प्रवृत्त होता है तब तीसरी प्रतिमाका धारी होता है । प्रोषध उपवासमें प्रवृत्त होता है तब चौथी प्रतिमाका धारी होता है। सचित्तके त्यागसे पाँचवीं प्रतिमाका धारक होता है। दिन में ब्रह्मचर्य धारण करनेसे छट्ठी प्रतिमावाला कहलाता है । सर्वथा ब्रह्मचर्यको धारण करनेसे सप्तम प्रतिमाका धारी होता है। आरंभ आदि संपूर्ण व्यापारोंसे रहित होता है तब अष्टम प्रतिमाका धारी कहा जाता है। वस्त्रके आच्छादनको छोड़कर अन्य सब परिग्रहोंसे रहित होता है तब नवमी प्रतिमाका धारक होता है। गृहसंबंधी व्यापार आदि संपूर्ण सावध ( हिंसासहित ) कार्यों में जब संमति ( सलाह ) देनेसे रहित होता है तब दशमी प्रतिमाका धारी कहलाता है। अपने निमित्त किये हुए आहारका त्याग करनेवाला ग्यारहवीं प्रतिमाका धारी श्रावक कहा जाता है। इन प्रतिमाभेदसे ग्यारह प्रकारके श्रावकोंके बीच में जो पहली छः प्रतिमायें हैं उनमें रहनेवाले तारतम्य ( हीनाधिकता ) से जघन्य श्रावक हैं; उनके आगे सातवीं आठवों और नववी इन तीन प्रतिमाके धारक मध्यम श्रावक हैं; इनके पश्चात् दसवीं और ग्यारहवीं इन दो प्रतिमाओंके धारक उत्तम श्रावक हैं । इस प्रकार संक्षेपसे देशचारित्रके दर्शनिक आदि ग्यारह भेद जानने चाहिये । ___ अब इस एकदेशचारित्रके व्याख्यानके पश्चात् सकलचारित्रका उपदेश करते हैं । “असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्तं" हे शिष्य ! अशुभसे निवृत्ति (रहितता) और शुभमें जो प्रवृत्ति है उसको चारित्र जानो। वह कैसा है ? "वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं" व्रत समिति और गुप्ति स्वरूप है; ऐसा व्यवहारनयसे श्रीजिनेन्द्रने कहा है। सो ही दिखाते हैंप्रत्याख्यानावरण नामक तीसरे कषायका क्षयोपशम होनेपर "जिसका विषयों और कषायोंमें गाढा, दुःश्रुति ( बुरा शास्त्रश्रवण ), दुष्टचित्त और दुष्ट गोष्ठी ( बुरी संगति ) इनसे सहित, उग्र तथा उन्मार्ग (बुरे मार्ग) में तत्पर ऐसा उपयोग है वह जीव अशुभमें स्थित है । १ ।' इस गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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