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बृहद्रव्य संग्रहः
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मोक्षमार्ग वर्णन ] लक्षणादशुभोपयोगान्निवृत्तिस्तद्विलक्षणे शुभोपयोगे प्रवृत्तिश्च हे शिष्य चारित्रं जानीहि । तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पञ्च महाव्रत पञ्चसमितित्रिगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति । तत्र योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितासभूतव्यवहारेण, यश्चाभ्यन्तरे रागादिपरिहारः स पुनरशुद्ध निश्चयेनेति नयविभागो ज्ञातव्यः । एवं निश्चयचारित्रसाधकं व्यवहारचारित्रं व्याख्यातमिति ॥ ४५ ॥
अथ तेनैव व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयति ;बहिर मंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासङ्कं ।
बहिरभ्यन्तरक्रियारोध:
गाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारितं ।। ४६ ।। भवकारणप्रणाशार्थम् । ज्ञानिनः यत् जिनोक्तं तत् परमं सम्यक्चारित्रम् ॥ ४६ ॥
व्याख्या--' "तं" तत् "परमं" परमोपेक्षालक्षणं निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मक शुद्धोपयोगा विनाभूतं परमं "सम्मचारित्तं" सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम् । तत्कि - "बहिरब्भं तर किरियारोहो" निष्क्रियनित्यनिरञ्जन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्य निजात्मन: प्रतिपक्षभूतस्य बहिविषये शुभाशुभवचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य योऽसौ निरोधस्त्यागः स च किमर्थं "भवकारणप्पणासट्ठ" पञ्चप्रकारभवातीत निर्दोषपरमात्मनो विलक्षणस्य
में कहे हुए लक्षणके धारक अशुभोपयोगसे रहितपना और उक्त अशुभोपयोग से विलक्षण ( उलटा ) शुभपयोग है उसमें प्रवृत्त होना जो है उसको हे शिष्य ! तुम चारित्र जानो । और वह चारित्र मूलाचार, भगवती आराधना आदि चरणानुयोगके शास्त्रोंमें कहे हुए प्रकारसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप है तो भी अपहृतसंयमनामक शुभोपयोगलक्षणका धारक, सरागचारित्र नामक चारित्र होता है । उसमें जो बाह्यविषयों में पाँचों इन्द्रियोंके विषय वगैरहका त्याग है वह तो उपचरित -असद्भूत - व्यवहारनयसे चारित्र है; और जो अन्तरंग में राग आदिका त्याग है वह अशुद्ध निश्चयनयसे चारित्र है; इस प्रकार नयोंका विभाग जानना चाहिये। ऐसे निश्चयचारित्रको साधनेवाला जो व्यवहारचारित्र है उसका व्याख्यान किया गया ।। ४५ ।।
अब इसी पूर्वोक्त व्यवहारचारित्रसे सिद्ध होने योग्य जो निश्चयचारित्र है उसका निरूपण करते हैं;
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गाथाभावार्थ - ज्ञानी जीवके जो संसारके कारणोंको नष्ट करनेके लिये बाह्य और अंतरंग क्रियाओंका निरोध है; वह श्रीजिनेन्द्रसे कहा हुआ उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है || ४६ ||
व्याख्यार्थ - "तं" वह "परभं " परम उपेक्षा ( अनादर ) स्वरूप लक्षणका धारक, और विकाररहित निजसंवेदनरूप जो शुद्धोपयोग है उससे व्याप्त होनेसे उत्कृष्ट "सम्मचारितं" सम्यक् चारित्र जानना चाहिये | वह क्या ? "बहिरब्भंतरकिरियारोहो" क्रियारहित - नित्य - निरंजन और निर्मल ज्ञान तथा दर्शनरूप स्वभावका धारक जो अपना आत्मा है उससे प्रतिपक्षभूत (प्रतिकूल ) - बाह्य विषय में शुभ-अशुभ-वचन-कायके व्यापाररूप, और इसी प्रकार अन्तरंग में शुभ-अशुभमनके विकल्परूप जो क्रियाका व्यापार है उसका जो निरोध अर्थात् त्याग है वह । वह त्याग किस लिये है ? "भवकारणप्पणासहूं" पाँच प्रकारके संसारसे रहित जो निर्दोष परमात्मा है उससे भिन्न
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