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________________ १५६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तृतीय अधिकार भवस्य संसारस्य व्यापारकारणभूतो योऽसौ शुभाशुभकर्मास्रवस्तस्य प्रणाशार्थं विनाशार्थमिति । इत्युभयक्रियानिरोधलक्षणचारित्रं कस्य भवति ? "णाणिस्स" निश्चयरत्नत्रयात्मकाभेदज्ञानिनः । पुनरपि किं विशिष्टं "जं जिणुत्तं" यज्जिनेन वीतरागसर्वज्ञेनोक्तमिति ॥ ४६॥ एवं वीतरागसम्यक्त्वज्ञानाविनाभूतं निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयमोक्षमार्गतृतीयावयवरूपं वीतरागचारित्रं व्याख्यातम् ॥ इति द्वितीयस्थले गाथाषट्कं गतम्। एवं मोक्षमार्गप्रतिपादकतृतीयाधिकारमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसंक्षेपकथनेन सूत्रद्वयम् तदनन्तरं तस्यैव मोक्षमार्गस्यावयवभूतानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां विशेषविवरणरूपेण सूत्रषट्कं चेति स्थलद्वयसमुदायेनाष्टगाथाभिः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः॥ __ अतः परं ध्यानध्यातध्येयध्यानपालकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथात्रयम्, ततः परं पञ्चपरमेष्ठिव्याख्यानरूपेण द्वितीयस्थले गाथापञ्चकम, ततश्च तस्यैव ध्यानस्योपसंहाररूपविशेषव्याख्यानेन तृतीयस्थले सूत्रचतुष्टयमिति स्थलत्रयसमुदायेन द्वादशसत्रेषु द्वितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका। तथाहि । निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसाधकध्यानाभ्यासं कुरुत यूयमित्युपदिशति; दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जयं झाणं समब्भसह ॥ ४७ ॥ लक्षणका धारक जो संसार उसके व्यापारका कारणभूत जो शुभ-अशुभ-कर्मोंका आस्रव उसके विनाशके लिये है। पूर्वोक्त प्रकारसे बाह्य और अंतरंग भेदसे. जो दो प्रकारकी क्रियायें हैं उनका त्यागरूप चारित्र किसके होता है ? "णाणिस्स" निश्चय रत्नत्रयस्वरूप अभेदज्ञानके धारक जीवके। फिर कैसा है वह चारित्र ? "ज जिणुत्तं" जो जिन अर्थात् श्रीवीतरागसर्वज्ञदेवसे कहा हुआ है ॥ भावार्थ-ज्ञानी जीवके संसारके कारणोंको दूर करनेके लिये जो बाह्य और अंतरंगकी शुभ अशुभ क्रियाओंका त्याग होता है वह श्रीजिनेन्द्रद्वारा कहा हुआ परम सम्यक्चारित्र है ।।४६।। इस प्रकार वीतरागसम्यक्त्व और ज्ञानके विना नहीं होनेवाला और निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो निश्चयमोक्षमार्ग है उसका तीसरा अवयवरूप जो वीतरागचारित्र है उसका व्याख्यान किया । ऐसे दूसरे स्थलमें ६ गाथायें समाप्त हुई । इस प्रकार मोक्षमार्गको प्रतिपादन करनेवाला जो तीसरा अधिकार है उसमें-निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्गके कथनसे दो सूत्र और उसके पश्चात् उसी मोक्षमार्गके अवयवरूप जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं उनके विशेष व्याख्यान रूपसे छः सूत्र, इस रीतिसे दो स्थलोंके समुदाय (जोड़ने) से जो आठ गाथायें हैं उनसे प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ॥ अब इसके आगे ध्यान, ध्याता (ध्यान करनेवाला), ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) और ध्यानका फल इनके कथनकी मुख्यतासे प्रथम स्थलमें तीन गाथायें, इसके पश्चात् पंच परमेष्ठियोंके व्याख्यानरूपसे दूसरे स्थलमें पाँच गाथायें; और इसके अनन्तर उसी ध्यानके उपसंहाररूप विशेष व्याख्यानद्वारा तीसरे स्थल में चार गाथायें इस प्रकार तीन स्थलोंके समुदायसे बारह गाथासूत्रोंका धारक जो तृतीय अधिकारमें दूसरा अंतराधिकार है उसकी समुदायरूप भूमिका है। उसमें प्रथम ही तुम निश्चय और व्यवहारमोक्षमार्गको साधनेवाला जो ध्यान है उसका अभ्यास करो ऐसा उपदेश देते हैं; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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