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________________ मोक्षमार्ग वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः १५७ द्विविधं अपि मोक्षहेतुं ध्यानेन प्राप्नोति यत् मुनिः नियमात् । तस्मात् प्रयत्नचित्ताः यूयं ध्यानं समभ्यसत ॥ ४७ ॥ व्याख्या- "दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा" द्विविधमपि मोक्षहेतुं ध्यानेन प्राप्नोति यस्मात् मुनिनियमात् । तद्यथा-निश्चयरत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षहेतुं निश्चयमोक्षमार्ग तथैव व्यवहाररत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षहेतुं व्यवहारमोक्षमार्ग च यं साध्यसाधकभावेन कथितवान् पूर्व तद्विविधमपि निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मकपरमध्यानेन मुनिः प्राप्नोति यस्माकारणात् “तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समभसह" तस्मात् प्रयत्नचित्ताः सन्तो हे भव्या यूयं ध्यानं सम्यगभ्यसत। तथा हि-तस्मात्कारणाद् दृष्टश्रुतानुभूतनानामनोरथरूपसमस्तशुभाशुभरागादिविकल्पजालं त्यक्त्वा परमस्वास्थ्यसमुत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवे स्थित्वा च ध्यानाभ्यासं कुरुत यूयमिति ॥४७॥ अथ ध्यातृपुरुषलक्षणं कथयति, मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्टणिट्टअट्ठसु । थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ।। ४८ ॥ मा मुह्यत मा रज्यत मा द्विष्यत इष्टानिष्टार्थेषु । स्थिरं इच्छत यदि चित्तं विचित्रध्यानप्रसिद्धये ॥४८॥ गाथाभावार्थ-मुनि ध्यानके करनेसे जो नियमसे निश्चय और व्यवहार इन दोनों स्वरूप मोक्षमार्गको पाता है। इस कारणसे हे भव्यो ! तुम चित्तको एकाग्र करके ध्यानका अभ्यास करो॥ ४७ || व्याख्यार्थ-"दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा' जिससे कि मुनि नियमसे ध्यान करके दोनों प्रकारसे मोक्षकारणोंको प्राप्त होता है। वे दोनों मोक्षके कारण इस प्रकार हैंनिश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चयमोक्षकारण अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग और इसी प्रकार व्यवहाररत्नत्रयरूप व्यवहारमोक्षहेतु अर्थात् व्यवहारमोक्षमार्ग, इन दोनोंको पहले साध्यसाधकभावसे अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग साध्य (साधनेयोग्य) है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधक (निश्चयमोक्षमार्गका साधनेवाला) है इस रूपसे जो पहले कहा है उस दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको मुनि जिस कारणसे विकाररहित-निजसंवेदनस्वरूप परमध्यान करके प्राप्त होता है "तम्हा पयत्तचित्ता जयं ज्झाणं समब्भसह" इसी कारणसे एकाग्रचित्त होकर हे भव्यजनो ! तुम भले प्रकारसे ध्यानका अभ्यास करो-अर्थात् मुनि ध्यानसे दोनों मोक्षमार्गोंको प्राप्त होते हैं इस कारणसे तुम देखा हुआ, सुना हुआ, और अनुभव किया हुआ जो अनेक प्रकारके मनोरथरूप संपूर्ण शुभ-अशुभ-राग आदि विकल्पोंका समूह है उसका त्याग करके और परमनिजस्वरूपमें स्थित होनेसे उत्पन्न हुआ जो सहज आनंदरूप एक लक्षणका धारक सुखरूपी अमृतरसके आस्वादका अनुभव है उसमें स्थित होकर ध्यानका अभ्यास करो ॥ ४७ ॥ अब ध्यान करनेवाले पुरुषके लक्षणको कहते हैं; गाथाभावार्थ-हे भव्यजनो! यदि तुम नाना प्रकारके ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यानकी सिद्धि के लिये चित्तको स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्टरूप जो इन्द्रियोंके विषय हैं उनमें राग द्वेष और मोहको मत करो ।। ४८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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