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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार व्याख्या-"मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह" समस्तमोहरागद्वेषजनितविकल्पजालरहितनिजपरमात्मतत्त्वभावनासमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसात्सकाशादुद्गता संजाता तत्रैव परमात्मसुखास्वादे लीना तन्मया या तु परमकला परमसंवित्तिस्तत्र स्थित्वा हे भव्या मोहरागद्वेषान्मा कुरुत; केषु विषयेषु ? "इट्टणिट्टअट्रेसु' स्रग्वनिताचन्दनताम्बूलादय इष्टेन्द्रियार्थाः अहिविषकण्टकशत्रुव्याधिप्रभृतयः पुनरनिष्टेन्द्रियार्थास्तेषु। यदि कि "थिरमिच्छहि जइ चित्तं" तत्रैव परमात्मानुभवे स्थिरं निश्चलं चित्तं यदीच्छत यूयं । किमर्थं "विचित्तझाणप्पसिद्धीए" विचित्रं नानाप्रकारं यद्धघानं तत्प्रसिद्धयै निमित्तं, अथवा विगतं चित्तं चित्तोद्भवशुभाशुभविकल्पजालं यत्र तद्विचित्तं ध्यानं तदर्थमिति ॥
इदानों तस्यैव ध्यानस्य तावदागमभाषया विचित्रभेदाः कथ्यन्ते। तथाहि-इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतीकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम् । तच्च तारतम्येन मिथ्यादृष्टयादिषट्गुणस्थानतिजीवसम्भवम् । यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्घायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां न भवति । कस्मादिति चेत्-स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति ।
___ व्याख्यार्थ-"मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह" समस्त-मोह, राग और द्वेषोंसे उत्पन्न हुए विकल्पोंके समहोंसे रहित जो निज परमात्माके स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न हआ परमानन्दरूप एक लक्षणका धारक सुखामृतरस उससे उत्पन्न हुई और उसी परमात्माके सुखके आस्वादमें तत्पर अर्थात् मग्न हुई जो परम कला अर्थात् परमसंवित्ति (आत्माके स्वरूपका साक्षात्काररूप अनुभव) है; उसमें स्थित होकर हे भव्य जीवो ! मोह, राग और द्वेषोंको मत करो। किनमें मोह राग द्वष मत करो? "इट्टणि?अट्टेसु' माला, स्त्री, चन्दन और ताम्बूल आदिरूप इष्ट इन्द्रियोंके विषयोंमें और सर्प, जहर, कांटा, शत्रु और रोग आदि अनिष्ट इन्द्रियोंके विषयोंमें, जो क्या "थिरमिच्छहि जइ चित्तं" यदि उसी परमात्माके अनुभवमें तुम निश्चल चित्तको चाहते हो तो । किसलिये स्थिर चित्तको चाहते हो ? "विचित्तझाणप्पसिद्धीए" विचित्र अर्थात् नानाप्रकारका जो ध्यान है उसकी सिद्धि के लिये अथवा दूर हो गया है चित्त अर्थात् चित्तसे उत्पन्न होनेवाला शुभ और अशुभ विकल्पोंका समूह जिसमें वह विचित्त ध्यान है उस विचित्तध्यान अर्थात् निर्विकल्पक ध्यानके लिये ।।
___अब प्रथम ही आगमभाषाके अनुसार उसी ध्यानके नानाप्रकारके भेदोंका कथन करते हैं । सो ही दिखाते हैं-इष्टका वियोग, अनिष्टका संयोग और रोगको दूर करने तथा भोगों और भोगोंके कारणोंमें इच्छा रखनेरूप भेदोंसे चार प्रकारका आर्तध्यान है अर्थात् इष्टका वियो न चाहना १, अनिष्टका संयोग न चाहना २, रोग न चाहना ३, और भोगनिदानोंकी वांछा करना ४, इन चार प्रकारोंका धारक आर्तध्यान है । और वह आर्तध्यान न्यूनाधिकभावसे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानको आदि ले प्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त जो छ: गुणस्थान हैं उनमें रहनेवाले जीवोंके होता है । और वह आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवोंके तिथंच गतिके बंधका कारण होता है तथापि जिस सम्यग्दष्टिने पहले तियंचगतिके आयुको बाँध लिया है उस सम्यग्दृष्टि जीवको छोड़कर अन्य जो सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनके तिर्यंचगतिके बंधका कारण नहीं है । क्यों नहीं है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवोंके “निज शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी जो भावना रहती है उसके बल से तिर्यंचगतिका कारणरूप जो संक्लेश है उसका अभाव है ।।
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