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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] १५९ अथ रौद्रध्यानं कथ्यते - हिंसानन्दमृषानन्दस्तेयानन्दविषयसंरक्षणानन्दप्रभवं रौद्रं चतुविधम् । तारतम्येन मिथ्यादृष्टचादिपञ्चमगुणस्थानवत्तिजीवसम्भवम् । तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति । तदपि कस्मादिति चेत्-निजशुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयं विशिष्टभेदज्ञानबलेन तत्कारणभूततीव्रसंक्लेशाभावादिति ॥ बृहद्रव्य संग्रहः अतः परमार्त्त रौद्रपरित्यागलक्षण माज्ञापायविपाकसंस्थान विचयसंज्ञचतुर्भेदभिन्नं, तारतम्यवृद्धिक्रमेणा संयत सम्यग्दृष्टिदेश विरतप्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधान चतुर्गुणस्थान वत्तिजीवसम्भवं, मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परम्परया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यानं कथ्यते । तथाहि - स्वयं मन्दबुद्धिasपि विशिष्टोपाध्यायाभावेऽपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति "सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ १ ॥” इति श्लोककथितक्रमेण पदार्थनिश्चयक रणमाज्ञाविचयध्यानं भण्यते । तथैव भेदाभेद रत्नत्रयभावनाबलेनास्माकं परेषां वा कदा कर्मणामपायो विनाशो भविष्यतीति चिन्तनमपायविचयं ज्ञातव्यम् । शुद्धनिश्चयेन शुभाशुभकर्मविपाकरहितोऽप्ययं जीवः पश्चादनादिकर्मबन्धवशेन पापस्योदयेन नारकादिदुःख विपाक फलमनुभवति, पुण्योदयेन देवादिसुखविपाकमनुभवतीति विचारणं विषाकविचयं अब रौद्रध्यानका कथन करते हैं । हिंसानन्द ( हिंसा में आनंद मानना) १, मृषानन्द (झूठ में आनंद मानना) २, स्तेयानन्द (चोरी करने कराने में खुश होना) ३, और विषयसंरक्षणानन्द (विषयोंकी रक्षा में आनंद मानना ) ४, इन चारोंसे उत्पन्न हुआ रौद्रध्यान चार प्रकारका है। यह न्यूनाधिकरूपसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको आदि ले पंचम गुणस्थानपर्यन्त रहनेवाले जीवोंके उत्पन्न होता है । और यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगतिका कारण है तो भी जिस सम्यग्दृष्टिने नरकायु है उसको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियोंके नरकगतिका कारण नहीं होता है । ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टियोंके जो "निजशुद्ध आत्माका स्वरूप है वही उपादेय है" इस प्रकारका विशिष्टभेदज्ञानका बल है उससे नरकगतिका कारणभूत जो तीव्र संक्लेश है वह नहीं होता ॥ अब इसके आगे आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यानके त्यागरूप लक्षणका धारक, आज्ञाविचय अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामक चार भेदोंसे भेदको प्राप्त हुआ, न्यूनाधिकवृद्धि क्रमसे असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन नामोंके धारक जो चार गुणस्थान हैं इनमें रहनेवाले जीवोंके उत्पन्न होनेवाला और प्रधानतासे पुण्यबंधका कारण है तो भी परंपरा से मोक्षका कारणभूत ऐसा जो धर्मध्यान है उसका कथन करते हैं । सो ही कहते हैं— आप अल्पबुद्धिका धारक हो तो भी, विशेष ज्ञानके धारक गुरुकी प्राप्ति न हो तो भी, शुद्ध जीव आदि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर भी "श्री जिनेन्द्रका कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतुओं से नहीं खंडित हो सकता है इसलिये जो सूक्ष्मतत्त्व है उसको आज्ञाके अनुसार ग्रहण करना चाहिये क्योंकि श्रीजिनेन्द्र अन्यथावादी अर्थात् झूठा उपदेश देनेवाले नहीं हैं ॥ १ ॥" इस श्लोक में कहे हुए क्रमके अनुसार जो पदार्थका निश्चय करना है वह आज्ञाविचय नामक प्रथम धर्मध्यान कहलाता है । और इसी प्रकार भेद तथा अभेदरूप रत्नत्रयकी भावनाके बलसे हमारे अथवा अन्यजीवोंके कर्मों का नाश कब होगा इस प्रकार जो विचारना है उसको अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान जानना चाहिये । शुद्ध निश्चयनयसे यह जीव शुभ-अशुभ कर्मोके उदयसे रहित है तो भी अनादिकर्मो के बंधके वशसे पापके उदयसे नारक आदि दुःखोंरूप विपाकरूप फलका अनुभवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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