SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार विज्ञेयम् । पूर्वोक्तलोकानुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयम् । इति चतुर्विधं धर्मध्यानं भवति ॥ अथ पृथक्त्ववितर्कवीचारं एकत्ववितर्कवीचारं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञं व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञं चेति भेदेन चतुविधं शुक्लध्यानं कथयति । तद्यथा-पृथक्त्ववितर्कवीचारं तावत्कथ्यते । द्रव्यगुणपर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भव्यते, स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुतं तद्वाचकमन्त ल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्त्यार्थान्तरपरिणमनं वचनाद्वचनान्तरपरिणमनं मनोवचनकाययोगेषु योगाद्योगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अयमत्रार्थः-यद्यपि ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्तां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते। तच्चोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमकानिवृत्त्युपशमकसूक्ष्मसाम्परायकोपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । क्षपकश्रेण्यां पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्परायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुक्लध्यानं व्याख्यातम् । निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रक करता है। और पुण्यके उदयसे देव आदिके सुखरूप विपाकको भोगता है। इस प्रकार विचार करना है उसको विपाकविचय नामक तीसरा धर्मध्यान जानना चाहिये । और पहले कही हुई जो लोकानुप्रेक्षाका चितवन करना है वह संस्थानविचय नामक चौथा धर्मध्यान है। इस प्रकार चार प्रकारका धर्मध्यान होता है । ___ अब पृथक्त्ववितर्कवीचार १, एकत्ववितर्कवीचार २, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति इस नामका धारक ३, और व्युपरतक्रियानिवृत्ति इस नामका धारक ४, ऐसे इन भेदोंसे चार प्रकारका जो शुक्लध्यान है उसको कहते हैं । वह इस प्रकार है-प्रथम ही पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक जो प्रथम शुक्लध्यान हैं उसका कथन करते हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय इनका जो जुदापना है उसको पृथक्त्व कहते हैं। निजशुद्धआत्माका अनुभवनरूप भावश्रुत, अथवा निजशुद्ध आत्माको कहनेवाला जो अन्तरंग वचन (सूक्ष्मशब्दकल्पन) है वह वितर्क कहलाता है। अनीहितवृत्तिसे अर्थात् बिना इच्छा किये अपने आप ही जो एक अर्थसे दूसरे अर्थमें, एक वचनसे दूसरे वचनमें और मन वचन काय इन तीनों योगोंमेंसे एक योगसे दूसरे योगमें जो परिणमन (लगाना) हैं उसको वीचार कहते हैं। भावार्थ यहाँपर यह है कि, यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्ध आत्माके ज्ञानको छोड़कर बाह्यपदार्थोंकी चिन्ता नहीं करता अर्थात् निज आत्माका ध्यान करता है । तथापि जितने अंशोंसे उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नहीं है उतने अंशोंसे अनीहितवृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं इस कारणसे इस ध्यानको ‘पृथक्त्ववितर्कवीचार' ध्यान कहते हैं। यह प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणीको विवक्षामें अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्तिकरण उपशमक, सूक्ष्मसांपराय उपशमक और उपशान्तकषाय इन ८ वें, ९ वें, १० वें और ग्यारहवें गुणस्थानपर्यन्त जो चार गुणस्थान हैं उनमें होता है । और क्षपकश्रेणीको विवक्षामें अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिकरणक्षपक और सूक्ष्मसांपरायक्षपक नामके धारक जो ८ से १० तक तीन गुणस्थान हैं उनमें होता है। इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यानका व्याख्यान किया गया। निजशुद्ध-आत्मद्रव्यमें अथवा विकाररहित जो आत्माका सुख है उससे अनुभवरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy