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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः स्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूय वीचारं गुणद्रव्यपर्यायपरावर्त्तनं करोति यत्तदेकत्ववितर्कवीचारसंज्ञं क्षीणकषायगुणस्थानसम्भवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते । तेनैव केवलज्ञानोत्पत्तिरिति । अथ सूक्ष्मकायक्रियाव्यापाररूपं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञं तृतीयं शुक्लध्यानम् । तच्चोपचारेण सयोगिकेवलिजिने भवतीति । विशेषेणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद्व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्त्तकं च तद्व्युपरत क्रियानिवृत्तिसंज्ञं चतुर्थ शुक्लध्यानं व्याख्यातम् । अध्यात्मभाषया पुनः सहजशुद्ध परम चैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धि कृत्वा पश्चादनन्तज्ञानोऽहमनन्त सुखोऽहमित्यादिभावनारूपमभ्यन्तरधर्मध्यानमुच्यते । पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादितदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानं भवति । तथैव स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्लध्यानमिति । अथवा "पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ॥ १ ॥” इति श्लोककथितक्रमेण विचित्रध्यानं ज्ञातव्यमिति ॥ १६१ अथ ध्यानप्रतिबन्धकानां मोहरागद्वेषाणां स्वरूपं कथ्यते । शुद्धात्मादितत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशजनको मोहो दर्शन मोहो मिथ्यात्वमिति यावत् । निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणवीतरागचारित्र 1 पर्याय में अथवा उपाधिरहित निजआत्माका जो ज्ञानरूप गुण है उसमें इन तीनोंमेंसे जिस एक द्रव्य, गुण वा पर्याय में ध्यानी प्रवृत्त हो गया उसी में वितर्क नामक जो निजात्मानुभवरूप भावश्रुतका बल है उससे स्थिर होकर जो विचार अर्थात् द्रव्य, गुण तथा पर्याय में परावर्त्तन करता है वह एकत्ववितर्कवीचार नामा क्षीणकषाय नामक १२ वे गुणस्थान में होनेवाला दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है । और इस दूसरे शुक्लध्यानसे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । अब सूक्ष्म जो कायकी क्रिया है उसका व्यापाररूप और अप्रतिपाति (जिसका कभी पतन न हो ऐसा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान है । वह उपचारसे सयोगिकेवलिजिन नामक १३ वें गुणस्थानमें होता है । विशेषता करके उपरत अर्थात् दूर हुई हैं क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति अर्थात् निवत्तंक न हो वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान कहा गया है | और अध्यात्मभाषासे सहज-शुद्ध-परम- चैतन्यसे शोभायमान तथा निर्भर (परिपूर्ण) आनंदके समूहको धारण करनेवाला जो भगवान् निज आत्मा है उसमें उपादेयबुद्धि करके अर्थात् निजशुद्धआत्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी बुद्धिको करके फिर जो "मैं अनन्त ज्ञानका धारक हूँ, मैं अनन्त सुखका धारक हूँ" इत्यादि भावनाका करना है उस रूप अंतरंग धर्मध्यान कहा जाता है । और पंचपरमेष्ठियोंकी भक्तिको आदिले उसके अनुकूल जो शुभ अनुष्ठानका करना है वह बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निजशुद्ध आत्मामें विकल्परहित ध्यानरूप लक्षणका धारक शुक्लध्यान है | अथवा “मन्त्रवाक्योंमें जो स्थित है वह पदस्थध्यान है, निज आत्माका जो चिन्तवन है वह पिंडस्थध्यान है, सर्वचिद्रूपका चिन्तवन जिसमें है वह रूपस्थध्यान है और निरंजनका जो ध्यान है वह रूपातीत ध्यान है ।। १ ।। " इस श्लोक में कहे हुए क्रमके अनुसार विचित्र अर्थात् नाना प्रकारका ध्यान जानना चाहिए ॥ I अब ध्यानके प्रतिबंधक अर्थात् रोकनेवाले जो मोह, राग तथा द्वेष हैं उनके स्वरूपका वर्णन करते हैं । शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत आग्रहको उत्पन्न करनेवाला जो मोह है वह दर्शन मोह अर्थात् मिथ्यात्व है । विकाररहित निज आत्माके अनुभवरूप जो वीतराग चारित्र है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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