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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
स्थानयुतानां अधर्मः पुद्गलजीवानां स्थानसहकारी । छाया यथा पथिकानां गच्छतां नैव सः धरति ॥ १८ ॥
व्याख्या - स्थानयुक्तानामधर्म: पुद्गलजीवानां स्थिते: सहकारिकारणं भवति । तत्र दृष्टान्तः - छाया यथा पथिकानाम् । स्वयं गच्छतो जीवपुद्गलान्स नैव धरतीति । तद्यथास्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरूपं परमस्वास्थ्यं यद्यपि निश्चयेन स्वरूपे स्थितिकारणं भवति तथा "सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं अनंतणाणादिगुणसमिद्धोऽहं । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य । १ । " इति गाथाकथितसिद्ध भक्तिरूपेणेह पूर्व सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति तथैव स्वकीयोपादानकारणेन स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामधर्मद्रव्यं स्थितेः सहकारिकारणम् । लोकव्यवहारेण तु छायावद्वा पृथिवीवद्वेति सूत्रार्थः ॥ एवमधमं द्रव्यकथनेन
गाथा गता ॥१८॥
अथाकाशद्रव्यमाह; -
[ प्रथम अधिकार
अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं । जेन्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १९ ॥ अवकाशदानयोग्यं जोवादीनां विजानीहि आकाशम् । जैनं लोकाकाशं अलोकाकाशं इति द्विविधम् ॥ १९ ॥
अधर्म द्रव्य है जैसे पथिकों ( बटोहियों ) की स्थिति में छाया सहकारी है । और गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलोंको वह अधर्मद्रव्य नहीं ठहराता है ॥ १८ ॥
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व्याख्यार्थ - स्थितिसहित जो पुद्गल तथा जीव हैं उनकी स्थिति में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है । उसमें दृष्टान्त - जैसे छाया पथिकों की स्थितिमें सहकारी कारण है और स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंको वह अधर्मद्रव्य कदापि नहीं ठहराता है । सो ऐसे है - यद्यपि निश्चयसे अपने आत्मज्ञानसे उत्पन्न सुखामृतरूप जो परमस्वास्थ्य है वह निजरूप में स्थितिका कारण होता है; परन्तु "मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्त ज्ञान आदि गुणोंका धारक हूँ, शरीरप्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असंख्यात प्रदेशोंका धारक हूँ तथा अमूर्त हूँ । १ ।" इस गाथामें कही हुई सिद्ध रूपसे इस संसार में पहले सविकल्प अवस्थामें सिद्ध भी जैसे भव्य जीवोंके बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी प्रकार अपने-अपने उपादान कारणसे स्वयं ही ठहरते हुए जीव और पुद्गलोंके अधर्मद्रव्य स्थितिका सहकारी कारण होता है । और लोकके व्यवहारसे जैसे छाया अथवा पृथिवी ठहरते हुए पथिकों की स्थिति में सहकारी होती है वैसे ही स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में अधर्मद्रव्य सहकारी होता है । यह सूत्रका भावार्थ है । ऐसे अधर्मद्रव्य के निरूपणद्वारा यह गाथा समाप्त हुई ॥ १८ ॥
अब आकाशद्रव्यका कथन करते हैं, -
गाथाभावार्थ - जो जीव आदि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है उसको श्रीजिनेन्द्र करके कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । वह लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका है || १९||
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