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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः - - व्याख्या-जीवादीनामवकाशदानयोग्यमाकाशं विजानीहि हे शिष्य । किं विशिष्टं "जेव्ह" जिनस्येदं जैनं, जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् । तच्च लोकालोकाकाशभेदेन द्विविधमिति । इदानीं विस्तरः-सहजशुद्धसुखामृतरसास्वादेन परमसमरसीभावेन भरितावस्थेषु केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतेषु लोकाकाशप्रमितासंख्येयस्वकीयशद्धप्रदेशेष यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठन्ति. तथाप्यपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यते इत्युक्तोऽस्ति । स च ईदृशो मोक्षो यत्र प्रदेशे परमध्यानेनात्मा स्थितः सन् कर्मरहितो भवति, तत्रैव भवति नान्यत्र । ध्यानप्रदेशे कर्मपुद्गलान् त्यक्त्वा ऊर्ध्वगमनस्वभावेन गत्वा मुक्तात्मानो यतो लोकाने तिष्ठन्तीति तत उपचारेण लोकाग्रमपि मोक्षः प्रोच्यते। यथा तीर्थभूतपुरुषसेवितस्थानमपि भूमिजलादिरूपमुपचारेण तीर्थ भवति । सुखबोधार्थ कथितमास्ते यथा तथैव सर्वद्रव्याणि यद्यपि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति तथाप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवतां श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तदेवानामिति ॥१९॥ तमेव लोकाकाशं विशेषेण द्रढयति; धम्माऽधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये । आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥२०॥ धर्माधर्मों कालः पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके। आकाशे सः लोकः ततः परतः अलोकः उक्तः ॥२०॥ व्याख्यार्थ-हे शिष्य ! जीवादि द्रव्योंको अवकाश ( रहनेको स्थान ) देनेकी योग्यता जिसमें है उसको जिन भगवान् सम्बन्धी अथवा श्रीजिनेन्द्र करके कहा हुआ आकाशद्रव्य जानो। और वह आकाश लोकाकाश तथा अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका है। अब इसका वर्णन विस्तारसे करते हैं। स्वाभाविक तथा शुद्ध सुखरूप अमृतरसके आस्वाद रूप परम समरसीभावसे पूर्ण अवस्थाओंसे युक्त तथा केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणोंके आधारभूत होनेसे जो लोकाकाश प्रमाण असंख्यात अपनी आत्माके प्रदेश हैं, उनमें यद्यपि निश्चयनयकी अपेक्षासे सिद्ध जीव निवास करते हैं, तथापि उपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे सिद्ध मोक्षशिलामें रहते हैं ऐसा कहा जाता है। यह पहले कह चुके हैं। और वह ऐसा मोक्ष जिस प्रदेशमें आत्मा परमध्यानयुक्त होकर कर्मरहित होता है वहाँ ही है, अन्यत्र कहीं नहीं। ध्यान करनेके स्थानमें कर्म पुद्गलोंको छोड़कर तथा ऊर्ध्वगमनस्वभावसे गमन कर मुक्त जीव जिस हेतुसे लोकके अग्रभागमें जाकर निवास करते हैं उस हेतुसे लोकका जो अग्रभाग है वह भी उपचारसे मोक्ष कहलाता है। जैसे कि तीर्थभूत पुरुषोंकरके सेवित भूमि तथा जल आदिरूप स्थान भी उपचारसे तीर्थ होता है। यह वर्णन यहाँपर शिष्योंको सुखसे समझानेके लिये किया गया है। जैसे सिद्ध निजप्रदेशोंमें रहते हैं उसी प्रकार निश्चयनयसे यद्यपि सभी द्रव्य अपने अपने प्रदेशोंमें स्थित रहते हैं, तथापि उपचरित असद्भुत व्यवहारनयसे लोकाकाशमें सब द्रव्य तिष्ठते हैं ऐसा यहाँपर भगवान् श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका अभिप्राय जानना चाहिये ॥ १९॥ अब उसी लोकाकाशको विशेषणरूपसे दृढ़ करते हैं;गाथाभावार्थ-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाशमें हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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