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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार व्याख्या - धर्माधर्मकालपुद्गलजीवाश्च सन्ति यावत्याकाशे स लोकः । तथा चोक्तंलोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इति । तस्माल्लोकाकाशात्परतो बहिर्भागे पुनरनन्ताकाशमलोक इति । अत्राह मोमाभिधानो राजश्रेष्ठी । हे भगवन् ! केवलज्ञानस्यानन्तभागप्रमितमाकाशद्रव्यं तस्याप्यनन्तभागे सर्वमध्यमप्रदेशे लोकस्तिष्ठति । स चानादिनिधनः केनापि पुरुषविशेषेण न कृतो न हतो न धृतो न च रक्षितः । तथैवासंख्यातप्रदेशस्तत्रा संख्यातप्रदेशे लोकेऽनन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गलाः, लोकाकाशप्रमितासंख्येयकालाणुद्रव्याणि प्रत्येकं लोकाकाशप्रमाणं धर्माधर्मद्वयमित्युक्तलक्षणा: पदार्थाः कथमवकाशं लभन्त इति ? भगवानाह - एकप्रदीपप्रकाशे नानाप्रदीप प्रकाशवदेक गूढ रसना गगद्याणके बहुसुवर्णवद्भस्मघटमध्ये सूचिकोष्टृदुग्धवदित्यादिदृष्टान्तेन विशिष्टावगाहनशक्तिवशादसंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानमवगाहो न विरुध्यते । यदि पुनरित्थंभूतावगाहनशक्तिनं भवति तर्ह्यसंख्यातप्रदेशेष्वसंख्यातपरमाणूनामेव व्यवस्थानं तथा सति सर्वे जीवा यथा शुद्ध निश्चयेन शक्तिरूपेण निरावरणाः शुद्धबुद्धकस्वभावास्तथा व्यक्तिरूपेण व्यवहारनयेनापि न च तथा प्रत्यक्षविरोधादागमविरोधाच्चेति । एवमाकाशद्रव्यप्रतिपादनरूपेण सूत्रद्वयं गतम् ॥२०॥ ४६ वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाशके आगे अलोकाकाश है ॥ २० ॥ व्याख्यार्थ -- धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल तथा जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाशके भाग में रहते हैं उतने आकाश भागका नाम लोक अथवा लोकाकाश है । ऐसा कहा भी है कि - जहाँपर जीव आदि पदार्थ देखने में आते हैं वह लोक है । उस लोकाकाशसे परे अर्थात् बाह्य भागमें जो अनन्त आकाश है वह अलोक अथवा अलोकाकाश है । अब यहाँपर मोम है नाम जिसका ऐसा राजश्रेष्ठी प्रश्न करता हैं कि हे भगवन् ! केवलज्ञानका जो अनन्त भाग है उस प्रमाण तो आकाशद्रव्य है और उस आकाशके अनन्त भागोंमेंसे एक भाग में सबके निचले भाग में लोक है और वह लोक आदि तथा अन्तसे रहित है, न किसी पुरुषका बनाया हुआ है, न किसीसे विनाशित है, न किसीसे धारण किया हुआ है और न किसीसे रक्षा किया हुआ है । और असंख्यात प्रदेशों का धारक है । उस असंख्यात प्रदेशोंके धारक लोकमें अनन्त जीव, अनन्त गुणे पुद्गल, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात कालाणु द्रव्य, लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य तथा लोकाकाश प्रमाण ही अधर्मद्रव्य इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणके धारक पदार्थ कैसे अवकाशको प्राप्त होते हैं ? इस शंकाका उत्तर कृपा कर दीजिये | अब भगवान् इसके उत्तरमें कहते हैं कि जैसे एक दीपक के प्रकाशमें अनेक दीपोंका प्रकाश अवकाशको पाता है उस तरह, अथवा जैसे एक गूढ रसविशेषसे भरे हुए शीशे के भांड बहुत सुवर्ण अवकाश पाता है उस प्रकार, अथवा भस्मसे भरे हुए घटमें जैसे सूई और ऊँटनीका दूध आदि समा जाते हैं उस विशिष्ट अवगाहन शक्तिके वशसे असंख्यात प्रदेशवाले लोकमें पूर्वोक्त जीवपुद्गलादिकोंका रहना विरोधको प्राप्त नहीं होता । और यदि इस प्रकार अवगाहनशक्ति न हो तो लोकके असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात परमाणुओंका ही निवास हो । और ऐसा होनेपर जैसे शुद्ध निश्चयनयसे सब जीव शक्तिरूपसे आवरणरहित तथा शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं, वैसे ही व्यक्तिरूप व्यवहारनगसे भी हो जायें; और ऐसे हैं नहीं । क्योंकि, ऐसा माननेमें प्रत्यक्ष से और आगमसे विरोध है । इस प्रकार आकाशद्रव्यके निरूपण से दो सूत्र चरितार्थ हुए ॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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