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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार रूपत्रिगुप्तावस्थायां मौनेन ध्यायत । पुनरपि कथम्भूतानां ? "परमेट्ठिवाचयाणं " 'अरिहंत' इति पदवांचकमनन्तज्ञानादिगुणयुक्तोऽहंद्वाच्योऽभिधेय इत्यादिरूपेण पञ्चपरमेष्ठिवाचकानां । "अणं च गुरुव एसेण" अन्यदपि द्वादशसहस्रप्रमितपञ्चनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं, बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् । इति पदस्थ - ध्यानस्वरूपं व्याख्यातम् ॥ ४९ ॥ एवमनेन प्रकारेण "गुप्तेन्द्रियमना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरौ || १ ||" इति श्लोककथितलक्षणानां ध्यातृध्येयध्यानफलाना संक्षेपव्याख्यानरूपेण गाथात्रयेण द्वितीयान्तराधिकारे प्रथमं स्थलं गतम् । १६४ अतः परं रागादिविकल्पोपाधिरहित निजपरमात्मपदार्थ भावनोत्पन्नसदानन्दैकलक्षण सुखामृतरसास्वादतृतिरूपस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानं तद्वयभूतानां पंचपरमेष्ठीनां मध्ये तावदत्स्वरूपं कथयामीत्येका पातनिका । द्वितीया तु पूर्वसूत्रोदित सर्व पदनामपदादिपदानां वाचकभूतानां वाच्या ये पञ्चपरमेष्ठिनस्तद्व्याख्याने क्रियमाणे प्रथमतस्तावज्जिनस्वरूपं निरूपयामि । अथवा तृतीया पातनिका पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति पातनिकात्रयं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति ; मन, वचन, काय इन तीनोंकी गुप्ति स्वरूप अवस्था है उनमें मौन द्वारा इन पूर्वोक्त पदोंका ध्यान करो। फिर कैसे इन पदोंको जपो ध्यावो ? "परमेट्ठिवाचयाणं" अरिहंत इस पदरूप वाचक है और अनन्त ज्ञान आदिगुणोंसे युक्त जो श्रीजिनेन्द्र है वह इस पदका वाच्य ( कहे जाने योग्य ) है; इत्यादि प्रकार से पंचपरमेष्ठियोंके वाचकोंको । "अण्णं च गुरूवएसेण" और इन पूर्वोक्त पदोंसे अन्यका भी जो कि बारह हजार श्लोकसंख्या प्रमाण पंचनमस्कारं माहात्म्य नामक ग्रंथ में कहे हुए प्रकारसे लघुसिद्धचक्र, बृहत्सिद्धचक्र इत्यादि देवोंके पूजनके विधानको भेदाभेदरूपरत्नत्रय के आराधक गुरुके प्रसादसे जानकर ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार पदस्थ ध्यानके स्वरूपका कथन किया ॥ ४९ ॥ इस प्रकार "पाँचों इन्द्रियों और मनको रोकनेवाला ध्याता ( ध्यानी ) है; यथास्थित जो पदार्थ है वह ध्येय है, एकाग्र होकर जो विचारका करना है वह ध्यान है और संवर तथा निर्जरा ये दोनों ध्यानके फल हैं || १ ||" इस श्लोक में कहे हुए लक्षणके धारक जो ध्याता, ध्येय, ध्यान और फल हैं उनका संक्षेपसे कथन करनेरूप तीन गाथाओंसे द्वितीय जो अंतराधिकार है उसमें प्रथम स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे राग आदि विकल्परूप उपाधिसे रहित जो निज परमात्मारूप पदार्थ है उसकी भावना से उत्पन्न और सदानन्दस्वरूप एक लक्षणके धारक सुखामृत के रसके आस्वादसे तृप्तिस्वरूप ऐसा जो निश्चयध्यान है उसका परंपरासे कारणभूत जो शुभोपयोगलक्षण व्यवहार ध्यान है उसके द्वारा ध्येय (ध्यान करने योग्य) भूत जो पंच परमेष्ठी हैं उनके मध्य मेंसे प्रथम ही जो अर्हत् परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपको कहता हूँ यह तो पहली पातनिका है । पूर्वगाथा में कहे हुए जो सर्वपद नामपद आदि वाचकभूत पद हैं उनके वाच्य जो पंच परमेष्ठी हैं उनका व्याख्यान करनेपर प्रथम ही श्रीजिनेन्द्रके स्वरूपको निरूपण करता हूँ यह दूसरी पातनिका है । अथवा पदस्थ, पिंडस्थ तथा रूपस्थ इन तीन ध्यानोंके ध्येयभूत जो श्री अर्हत् सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूपको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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